
श्री कृष्ण कहते हैं (3.8), तू नियत कर्तव्य कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर बेकार हो जाएगा।
मानव शरीर के अस्तित्व के लिए भोजन का संग्रह और उपभोग जैसी क्रियाएं आवश्यक हैं। इसके अलावा, मानव शरीर में कई अंग, प्रणालियां और रसायन होते हैं, जो नियमित रूपसे हजारों आंतरिक क्रियाएं करते हैं यहां तक कि अगर उनमें से कुछेक छूट जाएं, तो सम्बद्धता खो जाएगी और शरीर पीड़ित होगा या नष्ट हो जाएगा। उस अर्थ में, निष्क्रियता से शरीर का रखरखाव संभव नहीं होगा।
श्री कृष्ण नियत कर्मों को करने की बात करते हैं, जो एक जटिल अवधारणा है पवित्र ग्रंथों में दिए गए अनुष्ठानों और समाज द्वारा हम पर थोपे गए कर्त्तव्य को आमतौर पर नियत कार्यों के रूप में लिया जाता है लेकिन ये दोनों ही श्री कृष्ण भगवान के सन्देश को परिभाषित करने से चूक जाते हैं।
हमारा दायित्व भौतिक दुनिया में अपनी उच्चतम क्षमता को प्राप्त करना है; जैसे एक छोटे से बीज का विशाल वृक्ष बनना; जैसे ’जीन' में निहित निर्देशों को क्रियान्वित करके एकल कोशिका का एक जटिल मानव शरीर में विकसित होना।
इसका तात्पर्य यह है कि हम में से प्रत्येक के लिए कर्म पहले से ही हमारे गुणों द्वारा चुने गए हैं, जैसे कोशिकाओं केलिए ' जीन' में निर्देश इसलिए जो कुछ बचा है, वह निर्देशों का पालन ’करना' है, जिसमें बढ़ना, उपचार करना और खुद की रक्षा करना शामिल है।
यह हमारी पूरी क्षमता से ’अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन' करना है। यह केवल इस बारे में नहीं है कि हम क्या कर रहे हैं, बल्कि यह कि हम इसे कितना अच्छा कर रहे हैं।
बेशक, हमारी क्षमता, अनुभव, समय आदि के आधार पर हम में से प्रत्येक के लिए ' सबसे अच्छा’
भिन्न हो सकता है। कई बार केवल उपस्थिति, मौन या सहानुभूतपूर् तिपूर्ण सुनना भी अच्छा हो सकता है।
यह हमें मोक्ष (गुणों से परे) की उस शाश्वत अवस्था (2.72) में ले जाएगा, जो अव्यक्त के लिए नियत है। यह ' करना' चुनने के बारे में नहीं है- क्योंकि हमारा जन्म, जो कि हमारे जीवन की सबसे बड़ी घटना है, हमारी पसंद से नहीं है।