Gita Acharan |Hindi

 

श्रीकृष्ण कहते हैं, "इस शरीर में स्थित पुरुष को साक्षी (दृष्टा), अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता, महेश्वर और परमात्मा भी कहा जाता है'' (13.23)। इस जटिलता को समझने के लिए आकाश सबसे अच्छा उदाहरण है। इसे इसके स्वरूप के आधार पर अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है जैसे एक कमरा, एक घर, एक बर्तन आदि। मूलतः, आकाश एक है और बाकी इसकी अभिव्यक्तियां हैं।

 

श्रीकृष्ण आश्वासन देते हैं, "वे जो परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति के सत्य और तीनों गुणों की अन्तःक्रिया को समझ लेते हैं वे पुनः जन्म नहीं लेते। उनकी वर्तमान स्थिति चाहे जैसी भी हो वे मुक्त हो जाते हैं" (13.24)। प्रकृति में सबकुछ गुणों के कारण घटित होता है और पुरुष उन्हें दुःख और सुख के रूप में अनुभव करता है। इस बात की समझ हमें सुख और दुःख के बीच झूलने की दुर्गति से मुक्ति प्रदान करती है।

 

श्रीकृष्ण ने पहले मुक्ति के बारे में एक अलग दृष्टिकोण से समझाया कि सभी स्थितियों में गुणों के द्वारा ही कर्म किए जाते हैं; जो अहंकार से मोहित हो जाता है वह सोचता है 'मैं कर्ता हूँ' (3.27)। जो यह जानता है कि गुणों के साथ गुण परस्पर क्रिया करते हैं, वह मुक्त हो जाता है (3.28)।

 

मुक्ति का मतलब कुछ भी करने की स्वतंत्रता है। इससे यह तर्क सामने आता है कि यदि पाप या अपराध कहे जाने वाले कार्यों की अनुमति दी जाती है तो समाज कैसे जीवित रह सकता है। परन्तु इस तर्क में कमजोरी है कि यह घृणा को दबाकर पोषित रखने की अनुमति देता है। यह स्थिति तबतक रहेगी जबतक दबाकर रखी गई घृणा को व्यक्त न किया जाए। लेकिन श्रीकृष्ण कहते हैं कि उस घृणा को ही त्याग दो और अस्तित्व के साथ सामंजस्य अपने आप हो जाएगा।

 

 

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