
यदि हम कर्म के कर्ता नहीं हैं, तो कर्ता कौन है ? श्री कृष्ण जवाब देते हैं (3.5) “कोई भी कर्म किए बिना एक पल भी नहीं रह सकता क्योंकि सभी को कर्म करने के लिए प्रकृति से पैदा हुए गुणों द्वारा मजबूर किया जाता है।"
तीन परमाणु कण, अर्थात 'इलैक्ट्रॉन', 'प्रोटॉन' और 'न्यूट्रॉन' | पूरे भौतिक संसार का निर्माण करते हैं। इसी प्रकार, तीन गुण अर्थात 'सत्व', 'तम' और 'रज' हमें कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं। इस अर्थ में वे ही वास्तविक कर्ता हैं।
श्री कृष्ण आगे कहते हैं (3.6) "मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूं।"
बचपन से ही हमें सिखाया जाता है कि पारिवारिक और सामाजिक दोनों स्तरों पर अच्छे व्यवहार के लिए पुरस्कार और बुरे व्यवहार के लिए दंड मिलेगा। इसका परिणाम एक विभाजित व्यक्तित्व में निकलता है जिसमें हमारे आंतरिक और बाहरी स्वरूपों के बीच कोई समन्वय नहीं रहता।
उदाहरण के लिए, जब कोई हमें चोट भी पहुंचाता है, तो हम अच्छा व्यवहार प्रदर्शित करने के लिए शब्दों और प्रतिक्रिया के मामले में खुद को संयमित रख सकते हैं, लेकिन मन घृणा, पछतावा और अन्याय की भावना से भर जाता है।
श्री कृष्ण दमन के पक्ष में नहीं हैं, जिसे वह 'मिथ्या' कहते हैं, बल्कि इसके बजाय, समत्व प्राप्त करने की प्रेरणा देते हैं, जहां सुख और दुख को समान माना जाता है और इसलिए विभाजन खत्म हो जाता है।
मूल रूप से कोई भी इस नरक में नहीं रहना चाहता, लेकिन बहुत कम लोगों को ही पता है कि इससे बाहर कैसे निकला जाए। इसलिए श्री कृष्ण अनासक्त होकर कर्म योग में अपने कर्म अंगों को संलग्न करने के लिए तुरंत एक समाधान (3.7) देते हैं।
'अनासक्ति' ऐसा मूल तत्व है जोन आसक्ति है और न विरक्ति है। यह कर्ता से लगाव के बिना कर्म करना है, इस अहसास के साथ कि गुण ही वास्तविक कर्ता हैं; कर्मफल में आसक्त हुए बिना कर्म करना ।
यह इंद्रियों से अलग रहना है। और जब आसक्ति चली जाती है। तभी निःस्वार्थ सच्चा प्यार प्रकट होता है।