
दुष्चक्र और गुणी चक्र घटनाओं का एक क्रम है जहां एक घटना दूसरे की ओर ले जाती है और परिणामस्वरूप आपदा या खुशी में बदलती है। यदि खर्च आय से अधिक है और व्यक्ति उधार एवं कर्ज के जाल में फंस जाता है, तो यह एक दुष्चक्र है । यदि व्यय आय से कम है, जिसके परिणामस्वरूप बचत और धन सृजन होता है, तो यह एक गुणी चक्र है। श्री कृष्ण इन चक्रों का उल्लेख श्लोक 2.62 से 2.64 में करते हैं।
वह कहते हैं कि विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती हैं, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।
क्रोध से भ्रम उत्पन्न हो जाता है, भ्रम से स्मृति क्षीण हो जाती है, स्मृति क्षीण हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से व्यक्ति अपने स्तर से गिर जाता है। यह पतन दुष्चक्र है।
दूसरी ओर, श्री कृष्ण कहते हैं। कि अपने अधीन किए हुए मन वाला साधक अपने वश में की हुई राग- द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ मन की शांति और प्रसन्नता को प्राप्त होता है। यह और कुछ नहीं बल्कि शांति और आनंद का एक गुणी चक्र है।
हम सभी दैनिक जीवन में इन्द्रिय विषयों के बीच चलते हैं। हम इन इंद्रिय विषयों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, यह हमारी यात्रा की दिशा निर्धारित करता है।
गुणी चक्र के मामले में, व्यक्ति इंद्रिय विषयों के प्रति राग और द्वेष से मुक्त हो जाता है, जबकि एक दुष्चक्र में व्यक्ति राग या द्वेश के प्रति लगाव विकसित करता है।
द्वेष को छोड़ कर यह यात्रा शुरू करना आसान है, इस अहसास के साथ कि यह एक प्रकार का जहर है जो अंततः हमें नुक्सान पहुंचाता है। जब इसे छोड़ा जाता है, तो इसका ध्रुवीय विपरीत राग भी छूट जाता हैं, जो सच्चा और बिना शर्त वाला प्यार है जैसे एक फूल सुंदरता और सुगंध बिखेरता है।
राग और द्वेष की अनुपस्थिति गीता में एक मूल उपदेश है और श्री कृष्ण हमें सलाह देते हैं कि स्वयं सभी प्राणियों में और सभी प्राणियों को स्वयं में देखें तथा अंत में हर जगह श्री कृष्ण को देखें। यह एकता द्वेष छोड़ने में हमारी मदद करेगी, और अंततः हमें आनंदित करेगी।