
जीवन के सामान्य क्रम में जब हम एक ही विषय पर परस्पर विरोधी राय सुनते हैं, तो हम भ्रमित हो जाते हैं - चाहे वह समाचार, दर्शन, दूसरों के अनुभव और विश्वास हों। श्रीकृष्ण कहते हैं कि हम योग तभी प्राप्त करेंगे जब विभिन्न मतों को सुनने के बावजूद बुद्धि निश्चल और समाधि में स्थिर रहेगी।
इसके लिए सबसे अच्छां रूपक एक पेड़ है जिसका ऊपरी भाग दिखाई देता है और एक अदृश्य निचला भाग जड़ प्रणाली से युक्त होता है। हवाओं की ताकत के आधार पर ऊपरी भाग अलग-अलग अनुपात तक परेशान हो जाता है, दूसरी ओर जड़ प्रणाली इनसे प्रभावित नहीं होती है।
ऊपरी भाग बाह्य शक्तियों से निपटता रहता है, आंतरिक भाग समाधि में निश्चल रहता है और स्थिरता के साथ-साथ पोषण प्रदान करने का अपना कर्तव्य करता रहता है।
वही पेड़ के लिए योग के समान ही है, जहाँ बाहरी भाग प्रभावित होता है और आंतरिक भाग निश्चल रहता है।
जब हम अज्ञानी होते है हो हमारी बुद्धि डगमगाती रहती है और बाहरी उत्तेजनाओं के अनुसार कंपित होती है। ये कंपन बाहरी दुनिया को हमारे क्रोध तथा बिना सोच समझ की जाने वाली प्रतिक्रियाओं के रूप में दिखाई देते हैं। ये हमारे यह जीवन के साथ ही परिवार के सदस्यों और कार्यस्थल को भी दयनीय बना देते हैं।
समय के साथ अगले स्तर पर चले जाते हैं क्योंकि वे जीवन के अनुभवों का सामना करते हैं और इन कंपनों को दबाने के लिए खुद को प्रशिक्षित करते हैं ताकि एक ढका चेहरा पेश किया जा सके।
इस अवस्था में, ये कंपन अंदर मौजूद होते हैं, लेकिन एक सुखद चेहरा पेश करना सीख जाते है। हालांकि, ऐसा लंबे समय तक नहीं रह सकता है।
श्रीकृष्ण ’समाधि में निश्चल’ की जिस अंतिम स्थिति की बात करते हैं वह इन कंपनों को दूर करना ही है। दूसरे शब्दों में, यह एक अहसास है कि ये बाहरी कंपन क्षणिक हैं और हमें अन्तरात्मा के साथ पहचान स्थापित करनी हैं जो समाधि में निश्चल है।