Gita Acharan |Hindi

 

श्रीकृष्ण कहते हैं, "जो किसी प्राणी से द्वेष नहीं करते, सबके मित्र हैं, दयालु हैं, ऐसे भक्त मुझे अति प्रिय हैं क्योंकि वे स्वामित्व की भावना से अनासक्त (निर-मम्) और मिथ्या अहंकार से मुक्त (निर-अहंकार) रहते हैं, दुःख और सुख में समभाव रहते हैं और सदैव क्षमावान होते हैं। वे सदा तृप्त रहते हैं, मेरी भक्ति में दृढ़ता से एकीकृत हो जाते हैं, वे आत्म संयमित होकर, दृढ़-संकल्प के साथ अपना मन और बुद्धि मुझे समर्पित करते हैं" (12.13 और 12.14)।

 

यह श्रीकृष्ण के पहले के आश्वासन के विपरीत प्रतीत होता है जहाँ उन्होंने कहा कि उनके लिए कोई भी द्वेष्य नहीं है और न ही कोई प्रिय है (9.29)। जबकि उनका आशीर्वाद वर्षा की तरह सभी के लिए उपलब्ध है, इन गुणों को प्राप्त करना अपने कटोरे को सीधा रखने जैसा है।

 

'किसी से घृणा नहीं करना' भगवद गीता का मूल उपदेश है। पहले श्रीकृष्ण ने घृणा को त्यागकर कर्म करने की सलाह दी थी (5.3)। जब घृणा हमारा एक हिस्सा बन जाती है, तो इसे छोड़ना दर्दनाक हो जाता है क्योंकि यह हमारे एक अंग को खोने जैसा है। यह एक हानिकारक कैंसरयुक्त ट्यूमर को हटाने जैसा है, जिसे हटाने पर भी हमें दर्द होता है।

 

दूसरी ओर, घृणा को छोड़ना आवश्यक है क्योंकि यह हमारे व्यवहार और कार्यों को प्रभावित करता है। घृणा का सर्वोत्तम इलाज 'क्षमा' है। क्षमा करने के लिए साहस की आवश्यकता होती है और समत्व विकसित करने से वह साहस मिलता है। समत्व लोगों को एक दृष्टि से देखना होता है। जब हम लालच और क्रोध जैसे लक्षणों को दूसरों में देखते हैं तो हमें घृणा होती है लेकिन यह एहसास करना है कि हमारे भीतर भी लालच और क्रोध जैसे वही नकारात्मक गुण छिपे हुए हैं। इस एहसास से दूसरों के प्रति करुणा और अपने प्रति जागरूकता पैदा होती है जिससे घृणा खत्म हो जाती है। 

 

श्रीकृष्ण ने पहले कहा था कि निर-मम् और निर-अहंकार शांति का मार्ग है (2.71)। इसी प्रकार, 'नित्य तृप्त' गीता का एक और बुनियादी सिद्धांत है। जब एक लक्षण प्राप्त करते हैं, तो अन्य सभी खुद ब खुद उसका अनुसरण करेंगे क्योंकि वे आपस में जुड़े हुए हैं। हमें उन लक्षणों में से किसी एक में महारत हासिल करना है।

 

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