
श्रीकृष्ण कहते हैं कि संतुलन बुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होनेवाले फल को त्यागकर जन्मरूपी बन्धन से मुक्त हो निर्विकार परमपद को प्राप्त हो जाते हैं।
लंबे समय तक, मानव जाति का मानना था कि सूर्य स्थिर पृथ्वी के चारों ओर घूमता है और बाद में पता चला कि यह पृथ्वी ही है जो सूर्य के चारों ओर घूमती है। अंत में, हमारी समझ अस्तित्वगत सत्य के साथ मिली, जिसका अर्थ है कि समस्या सत्य की हमारी गलत व्याख्या के कारण थी जो हमारी इंद्रियों की सीमाओं द्वारा लाए गए भ्रम से उत्पन्न हुई थी।
जन्म और मृत्यु के बारे में हमारे भ्रम के साथ भी ऐसा ही है।
श्रीकृष्ण गीता की शुरुआत में देही या आत्मा के बारे में बताते हैं, जो सभी में व्याप्त है और अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है। वह आगे कहते हैं कि आत्मा भौतिक शरीरों को बदल सकती है, जैसे हम पुराने कपड़ों को नए पहनने के लिए त्याग देते हैं। जब वे कहते हैं कि संतुलित बुद्धि से व्यक्ति जन्म के बंधनों से मुक्त हो जाता है, तो इसका तात्पर्य यह है कि वह स्वयं को ‘देही’ /‘आत्मा’ के सत्य के साथ जोड़ लेता है।
यह पृथ्वी के चारों ओर घूमने वाले सूर्य के भ्रम से बाहर आने और सूर्य के चारों ओर घूमने वाली पृथ्वी के अस्तित्व संबंधी सत्य के साथ संरेखित होने जैसा है।
हम बहुसंख्यकों के साथ अपनी पहचान रखते हैं, लेकिन बहुसंख्यक जो जन्म और मृत्यु को मानते हैं, हमें ‘देही’/‘आत्मा’ के सत्य की ओर मार्गदर्शन करने में सक्षम नहीं हो सकते हैं। ऐसा केवल हमारी अपनी संतुलित बुद्धि ही कर सकती है।
श्रीकृष्ण ने ध्रुवीयता से परे की अवस्था के बारे में भी उल्लेख किया है। आमतौर पर, इसे स्वर्ग के रूप में और कभी-कभी परमपद के रूप में वर्णित किया जाता है जो कहीं बाहर है।
यह श्लोक इंगित करता है कि यह मार्ग हमारे भीतर है। यह कर्मों को त्यागे बिना कर्मफल के त्याग का मार्ग है।