
श्रीकृष्ण कहते हैं, "हे अर्जुन, मुझे समस्त सृष्टि का आदि, मध्य और अंत जानो। सभी विद्याओं में मैं अध्यात्म विद्या हूँ और सभी तर्कों का मैं तार्किक निष्कर्ष हूँ" (10.32)। उसी आध्यात्मिक ज्ञान का उल्लेख करते हुए, श्रीकृष्ण ने पहले कहा था कि जब आपको इसका एहसास हो जाता है, तो यहां और कुछ भी जानने को शेष नहीं रहता है (7.2)।
सार स्वयं को जानना है। श्रीकृष्ण ‘आत्म’ के ज्ञाता को योगी कहते हैं और कहते हैं कि वह शास्त्र ज्ञानी से श्रेष्ठ है जिसने कई ग्रंथ पढ़े होंगे लेकिन अभी भी ‘आत्म’ के बारे में नहीं जानते हैं (6.46)। श्रीकृष्ण ने इसे प्राप्त करने का एक मार्ग सुझाया जब उन्होंने कहा, "साष्टांग प्रणाम, प्रश्न और सेवा के द्वारा 'उस' को जानो, जिन बुद्धिमानों ने सत्य को जान लिया है, वे तुम्हें ज्ञान सिखाएंगे" (4.34)।
जो ज्ञान हमारे अहंकार का नाश कर देता है वही आध्यात्मिक ज्ञान है। इतिहास, भौतिकी या चिकित्साशास्त्र जैसे कोई भी विषय हो सकते हैं जहां हम जितना अधिक सीखते हैं उतना ही अधिक सीखने के लिए बाकी रह जाता है। इसलिए ऐसी विषयों अथवा परिस्थितियों में हमें यह एहसास कराने की क्षमता है कि हम सर्वशक्तिमान के हाथों में केवल एक उपकरण यानी निमित्तमात्र हैं। यह कोई भी ज्ञान हो सकता है जो अहंकार को मिटाने में मदद करता है जैसे कि नमक की गुड़िया समुद्र में घुल जाती है।
आध्यात्मिक ज्ञान के बाद श्रीकृष्ण तर्क का उल्लेख करते हैं जो प्रश्न करने के अलावा और कुछ नहीं है। यह वह तर्क नहीं है जिसका उपयोग हम किसी बहस में किसी बात को साबित करने के लिए करते हैं, बल्कि यह वह तर्क है जिसका उपयोग परम सत्य या आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में किया जाता है।
श्रीकृष्ण आगे कहते हैं, "मैं सभी अक्षरों में ‘अ’ कार हूँ; मैं समासों में द्वंद्व नामक समास हूँ। मैं शाश्वत काल हूँ, और सृष्टाओं में ब्रह्मा हूँ" (10.33)।
पहले श्रीकृष्ण ने कहा था कि मापने वालों में वह समय हैं और अब वे कहते हैं कि वह शाश्वत समय हैं। यह समय ही है जो हर चीज को बनाता है और समय आने पर उसे नष्ट भी कर देता है। लेकिन समय कभी नहीं बदलता और वह शाश्वत परमात्मा हैं।