
श्रीकृष्ण कहते हैं, "शुद्ध (पवित्र) करने वालों में मैं वायु हूँ, और शस्त्रधारियों में मैं श्रीराम हूँ। जलीय जीवों में मैं मगरमच्छ हूँ, और बहती नदियों में मैं जाह्नवी (गंगा) हूँ" (10.31)।
सबसे पहले, हवा हमारे शरीर से अशुद्धियों को साफ करने में मदद करती है। रासायनिक प्रक्रियाओं के कारण खून अशुद्ध होता रहता है और फेफड़ों के माध्यम से वायु इसे शुद्ध करने में मदद करती है। इस शुद्धिकरण के बिना जीवन कुछ पल भी टिक नहीं सकता।
दूसरा, हवा अत्यंत लचीली और चलनशील है। यह गतिशीलता पर्यावरण को शुद्ध करने में मदद करती है। तीसरा, हवा स्वतंत्रता का प्रतीक है। पवित्रता का अर्थ है इच्छाओं और दुःखों से मुक्ति, जो परम मुक्ति या मोक्ष है।
अंत में, वायु अनासक्ति का प्रतीक है। यह दुर्गंध को बिना किसी घृणा के तथा सुगंध को बिना किसी लगाव के वहन करता है। यह समय के साथ इन दोनों को सुगमता से छोड़ देता है। यही अनासक्ति है, जो आसक्ति और विरक्ति से परे की अवस्था है। कर्तापन की भावना किसी भी कर्म को पाप बनाती है। सुखद यादों, चीजों, लोगों आदि से जुड़ना या अप्रिय लोगों से घृणा करना दोनों ही अशुद्धता है।
'नियत कर्म' एक जटिल अवधारणा है। नियत कर्म को समझने में वायु की ये विशेषताएं मदद करती हैं कि हमें जो कर्म दिया गया है उसे बिना किसी लगाव के करना है जैसे कि हवा के द्वारा गंध का वहन होता है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे शस्त्र चलाने वाले योद्धाओं में श्रीराम हैं। भगवान राम को दयालु माना जाता है लेकिन वे सच्चाई और मूल्यों के पक्षधर थे। जहां रावण निष्ठा रहित शक्ति का प्रतीक है, वहीं श्रीराम निष्ठा और शक्ति का संयोजन हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि श्रीराम की तरह यह संयोजन संभव है। सत्ता को सही दिशा देने के लिए सत्य निष्ठा अनिवार्य है और यह बात आज के परिदृश्य में भी लागू होती है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह नदियों में गंगा हैं। निश्चित रूप से गंगा अपने आकार के लिए नहीं, बल्कि सदियों से सभ्यता का प्रतीक है जहाँ हर कोई किसी न किसी तरह से इससे जुड़ा हुआ है।