
श्रीकृष्ण कहते हैं, "मैं अस्त्रों में वज्र हूँ; मैं गायों में कामधेनु हूँ; संतान की उत्पत्ति के हेतु में मैं प्रेम का देवता कामदेव और सर्पो में सर्पराज वासुकि हूँ (10.28)। जलचरों में मैं वरुण हूँ; शासन करनेवालों में मैं यमराज हूँ (10.29)। मैं दैत्यों में प्रह्लाद हूँ; मापने वालों में मैं समय हूँ" (10.30)।
पहले श्रीकृष्ण ने कहा था 'मैं मृत्यु हूँ' और अब वे कहते हैं वह कामदेव भी हैं। इसके लिए गहन मंथन करने की आवश्यकता है। हमें अपनी समझ की सीमाओं को पार करना होगा। चीजों को अच्छे या बुरे के रूप में विभाजन करने की हमारी प्रवृत्ति ही बाधा है। इस विभाजन के कारण हम जन्म को अच्छा और मृत्यु को बुरा मानते हैं।
हर प्राणी अपने वंश को बढ़ाना चाहता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह हर प्राणी में मौजूद 'इच्छा' हैं जो जीवों की उत्पत्ति के लिए जिम्मेदार है। यह बाहर की ओर या दूसरों की ओर बहने वाली ऊर्जा है। जब यह ऊर्जा अंदर की ओर बहती है तो यह भक्ति के अलावा और कुछ नहीं है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि शासन करने वालों में वह यमराज (मृत्यु के देवता) हैं। मृत्यु आत्मा के स्तर पर शक्तिहीन है, लेकिन बाहरी दुनिया में यह शक्तिशाली और अटल है। मृत्यु आसक्ति के बिना समदर्शी होती है। यह किसी भी कानून के रखवाले के लिए आवश्यक गुण है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह दैत्यों में प्रह्लाद है। यह दर्शाता है कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी भक्त बनने की संभावना होती है। जिस प्रकार कोयले का एक टुकड़ा प्रतिकूल परिस्थितियों में हीरा बनता है, उसी प्रकार हम भी सीखने और आगे बढ़ने के लिए प्रतिकूल परिस्थितियों की ऊर्जा का उपयोग कर सकते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह समय हैं जो सभी के लिए समान रूप से उपलब्ध है - बस एक वर्तमान क्षण। चाहे कोई कितना भी अमीर या शक्तिशाली क्यों न हो, समय किसी का इंतजार नहीं करता।
श्रीकृष्ण के लिए जीवन एक उत्सव की तरह है जो आंतरिक स्थिति है। बाहरी परिस्थितियों के बावजूद प्रह्लाद ने इसे प्राप्त किया था। यह इस जागरूकता से हासिल होता है कि सबकुछ परमात्मा ही हैं।