
एक बार दो शत्रुओं ने प्रार्थना की और प्रभु उनके सामने प्रकट हुए।
प्रभु ने दोनों को वरदान देना चाहा। पहले व्यक्ति ने दूसरे की इच्छाओं के बारे में जानना चाहा। परन्तु दूसरे व्यक्ति ने प्रभु से अनुरोध किया कि पहले वाले को पहले आशीर्वाद दें क्योंकि प्रभु वहां पहले प्रकट हुए थे। तब पहले व्यक्ति ने प्रभु से कहा कि दूसरे की अपेक्षा उसे दोगुना दे दें। दूसरा व्यक्ति जो शत्रुता से अंधा हो गया था, प्रार्थना किया कि वह एक आँख खो दे ताकि पहला व्यक्ति दोनों आँखें खो देगा; वह एक पैर खो दे ताकि पहला दोनों पैर खो देगा।
हार-हार का यह खेल तब चलता है जब कोई अपनी ऊर्जा घृणा में लगाता है और इसीलिए कृष्ण ने पहले हमें घृणा छोडऩे के लिए कहा था, लेकिन कर्म नहीं (5.3)।
इस कहानी से एक और सीख यह मिलती है कि हमें बुद्धिमानी से अपने समय और ऊर्जा का निवेश करना चाहिए क्योंकि ये हमारे स्तर पर सीमित हैं।
इस संबंध में, श्रीकृष्ण कहते हैं कि दो शाश्वत मार्ग हैं जिनमें पहला बिना वापसी का ज्योतिर्मय मार्ग है और दूसरा फिर से लौटने का अंधेरा मार्ग (8.23 एवं 8.26)। ज्योतिर्मय मार्ग हमारी अधिकांश ऊर्जा को ब्रह्म तक पहुँचने की आंतरिक यात्रा की ओर ले जाने का मार्ग है (8.24)।
अंधेरा रास्ता हमारी ऊर्जा को बाहर प्रसारित करता है (हार-हार का खेल है) और व्यक्ति फिर से वापस लौटता है (8.25)। कृष्ण इन मार्गों के लिए विभिन्न नामों और गुणों का उपयोग करते हैं। जबकि अंधेरा रास्ता जन्म और मृत्यु के ध्रुवों के बीच झूलते हुए एक पेंडुलम की तरह है, ज्योतिर्मय मार्ग पेंडुलम की धुरी तक पहुंचना है जो ध्रुवों के पार है और ब्रह्म यानी सर्वोच्च तक पहुंचने के अलावा और कुछ नहीं है।
कृष्ण कहते हैं कि एक बार इन मार्गों को समझ लेने के बाद कोई भी भ्रमित नहीं होता (8.27)। यह समय और ऊर्जा का सदुपयोग है।
वह आगे कहते हैं, ‘‘योगी पुरुष इस रहस्य को तत्व से जानकर वेदों के पढऩे में तथा यज्ञ, तप और दानादि के करने में जो पुण्यफल कहा है, उन सबको निस्संदेह उल्लंघन कर जाता है और सनातन परमपद को प्राप्त होता है’’ (8.28)।