Gita Acharan |Hindi

भगवद्गीता के सातवें अध्याय को ‘ज्ञान-विज्ञान-योग’ कहा जाता है, जो व्यक्त और अव्यक्त की समझ के बारे में है। श्रीकृष्ण इस अध्याय में दो आश्वासन देते हैं। पहला, एक बार ‘यह’ जान लेने के बाद, जानने के लिए कुछ भी नहीं बचता (7.2) और दूसरा, अगर ‘यह’ मृत्यु के समय भी समझ लिया जाए तो भी वे मुझे प्राप्त करते हैं (7.29)। 

व्यक्त (नाशवान) अष्टांगिक है (7.4) और अव्यक्त (शाश्वत) जीवन तत्व है जो इंद्रियों से परे है लेकिन मणियों के आभूषण में एक सूत्र की तरह ‘व्यक्त’ को सहारा देता है (7.7)। व्यक्त तीन गुणों से उत्पन्न भ्रान्ति (7.25); इच्छा और द्वेष की ध्रुवता (7.27) के प्रभाव में है जिसे ‘परमात्मा’ की शरण में जाकर पार किया जा सकता है।

विज्ञान यह निष्कर्ष निकालता है कि यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड (व्यक्त) एक बिंदु से बना है और हम अपने चारों ओर जो कुछ भी देखते हैं वह उस बिंदु से जुड़ा है जो कभी अनंत क्षमता रखता था। इसी तरह की सादृश्यता अव्यक्त के लिए भी मान्य होगी, जहां हम सभी एक अदृश्य तार/केबल के माध्यम से अनंत क्षमता के एक बिंदु (परमात्मा) से जुड़े हुए हैं। भ्रम एक प्रकार का प्रतिरोध है जो हमें इस स्रोत से पूरी तरह से जुडऩे से रोकता है। 

श्रद्धा (7.21) चालकता (कंडक्टिविटी) की तरह है जो हमें इस शक्तिशाली स्रोत से जोडऩे में मदद करती है जो इच्छाओं को पूरा करने में मदद करेगी (7.22) जैसा कि चार प्रकार के भक्तों के मामले में होता है (7.16)। जब किसी की श्रद्धा सौ प्रतिशत होती है, तो यह अति चालकता (सुपर कंडक्टिविटी) की तरह होता है जैसा कि श्रीकृष्ण कहते हैं, मैं उन्हें खुद के रूप में मानता हूँ (7.18)। 

गीता अनुभवात्मक है और इस अध्याय का अनुभव करने का सबसे अच्छा तरीका जीवन के पिछले अनुभवों का विश्लेषण करना है जब हम भ्रम की जाल में फंसे थे। 

एक बार जब हम भ्रमों को समझ लेते हैं, तो हम साक्षी बनकर बिना प्रभावित हुए वर्तमान क्षण में भ्रमों का सामना करते हैं। इसी को परम स्वतंत्रता (मोक्ष) की शाश्वत अवस्था कहा जाता है।

https://epaper.punjabkesari.in/clip?2000667


Contact Us

Loading
Your message has been sent. Thank you!