Gita Acharan |Hindi

अस्तित्व व्यक्त और अव्यक्त का सामंजस्य है जिसमें मनुष्य व्यक्त और परमात्मा अव्यक्त है। बुनियादी स्तर का आपसी बर्ताव परमात्मा के अनादर के साथ मनुष्य और मनुष्य के बीच होता है। श्रीकृष्ण ने इसे असुरों का मार्ग बताया है (7.15)। अगले स्तर का बर्ताव मनुष्य और परमात्मा के बीच होता है। यह संक्रमण तब शुरू होता है जब कोई मृगतृष्णा का पीछा करते हुए थक जाता है या अपनी दुर्गति से परेशान हो जाता है। 

श्रीकृष्ण कहते हैं कि मनुष्य और परमात्मा के बीच ये बर्ताव यानी पूजा चार प्रकार की होती है। पहली श्रेणी के उपासक अपनी कठिनाइयों को दूर करना चाहते हैं, दूसरी श्रेणी के उपासक धन, सफलता या मन की शांति प्राप्त करना चाहते हैं, तीसरी तरह के उपासक ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं और चौथे ज्ञानी होते हैं (7.16)।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि पहले तीन उपासक, जो ज्ञान से वंचित हैं, अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए विभिन्न देवताओं की आराधना करते हैं (7.20)। यह बीमारियों के आधार पर संबंधित चिकित्सक के पास जाने जैसा है। वह आगे कहते हैं कि जब वे श्रद्धा के साथ पूजा करते हैं, वह (श्रीकृष्ण) उस श्रद्धा को अविचलित बनाते हैं (7.21) और भक्त की इच्छाएं उनकी श्रद्धा के कारण पूरी होती हैं (7.22) लेकिन ये तीन मार्ग सीमित परिणाम देते हैं (7.23)। 

यह ‘कर्मफल की उम्मीद किए बिना कर्म करने’ के विपरीत प्रतीत होता है (2.47), जो शाश्वत अवस्था की मौलिक विशेषता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि, करुणामय श्रीकृष्ण हमें दुर्गति या अंधेरे से इच्छाहीन शास्वत अवस्था के उजाले की ओर ले जाने में कदम दर कदम मार्गदर्शन देते हैं।

दूसरे, श्रीकृष्ण कहते हैं कि भक्तों की श्रद्धा उनकी इच्छाओं को पूरा करती है और वह उस श्रद्धा के पीछे हैं। इसका तात्पर्य यह है कि ईश्वर के प्रति, कार्य के प्रति या रिश्तों के प्रति हमारी श्रद्धा हमें उचित प्रतिफल प्रदान करती है। अगर हमने कभी इस सांसारिक दुनिया में कुछ भी प्राप्त किया है तो यह हमारी श्रद्धा का परिणाम है। श्रद्धा प्रतिकूल परिस्थितियों में भी वही समर्पण है जहां हमें धैर्य रखने की आवश्यकता होती है और इसीलिए कहा जाता है ‘श्रद्धा’ के साथ ‘सबूरी’।

 

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