Gita Acharan |Hindi

प्रत्येक भौतिक प्रणाली अलग-अलग इनपुट लेती है और कुछ आउटपुट उत्पन्न करती हंै। हम शब्दों और कर्मों जैसे अपने आउटपुट को लगातार मापते या आंकते हैं। हम दूसरों के कार्यों के साथ-साथ अपने आस-पास की विभिन्न स्थितियों को भी आंकते हैं।

 वास्तव में, विकासवादी प्रक्रिया में, हमारे लिए खतरों को पहचानना बहुत जरूरी था। हालाँकि, समस्या कर्मों को सही या गलत निर्धारित करने के लिए मानकों के अभाव में है, जिसकी वजह से हम अक्सर अज्ञानता पर आधारित धारणाओं और विश्वास प्रणालियों पर निर्भर रहते हैं।

 जब भी हम किसी ऐसे स्थिति का सामना करते हैं जो हमारे विश्वास प्रणाली के अनुरूप होता है, तो हम खुश और संतुष्ट महसूस करते हैं।

इस संबंध में, श्रीकृष्ण कहते हैं कि, ‘‘जिसका मन अपने वश में है, जो जितेन्द्रिय एवम विशुद्ध अंत:करणवाला है और सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता’’ (5.7)। यह प्रभु की ओर से एक आश्वासन है कि हमारे कर्म किन परिस्थितियों में कलंकित नहीं होंगे।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि शुद्ध व्यक्ति द्वारा किए गए कर्म कलंकित नहीं होते हैं जो द्वेष और इच्छाओं से मुक्त है और जिसने अपने स्वयं को सभी प्राणियों के स्वयं के रूप में महसूस किया है (5.3)। ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब कोई अपने आप को सभी प्राणियों में देखता है तो कोई कारण नहीं है कि वह कलंकित कार्य या अपराध करे। इसके विपरीत, अपने और पराये के विभाजन की दृष्टि से किए जाने पर हमारे सभी कार्य दूषित हो जाते हैं।

जब हमारे आस-पास की स्थितियों को पहचानने की बात आती है, तो श्रीकृष्ण कहते हैं कि, ‘‘जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता है’’ (5.10)। 

जब हमारे कर्मों के साथ-साथ दूसरों के कर्म भी भगवान को समर्पित होते हैं, तो विभाजन की कोई गुंजाइश नहीं होती है। तब हम जिन परिस्थितियों का सामना करेंगे वे नाटक और अभिनय प्रतीत होंगे, जहां हम अपनी भूमिका निभाते हैं और श्रीकृष्ण इसकी तुलना कमल के पत्ते से करते हैं।


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