
यज्ञ बलिदान या निस्वार्थ कार्यों का प्रतीक है। इस सन्दर्भ में, श्रीकृष्ण कहते हैं कि, कुछ योगी देवताओं के लिए यज्ञ करते हैं; अन्य लोग बलिदान को ब्रह्म की अग्नि में बलिदान करते हैं (4.25)।
जागरूकता के बिना जीने वाले के लिए, जीना सिर्फ चीजों को इकट्ठा करना और उन्हें संरक्षित करना है। जीवन का अगला चरण चीजों, विचारों और भावनाओं का त्याग है। अहंकार के बीजों को मन की उपजाऊ भूमि पर बोने के बजाय आग में बलिदान करने जैसा है। तीसरे चरण में बलिदान का ही बलिदान करना है, यह महसूस करते हुए कि वे सभी ब्रह्म यानी परमात्मा हैं।
यह कहा जा सकता है कि मन उन्मुख कर्मयोगी कर्म की तलाश में रहता है और उसके लिए यज्ञ करना ही मार्ग है। बुद्धि उन्मुख ज्ञानयोगी शुद्ध जागरूकता के बारे में है और वह बलिदान को ही बलिदान करता है। जबकि पहला अनुक्रमिक है, बाद वाला एक घातीय या लम्बी छलांग है, लेकिन दुर्लभ है। हालाँकि, दोनों रास्ते एक ही मंजिल की ओर ले जाते हैं।
श्रीकृष्ण इस वास्तविकता को इंद्रियों के सन्दर्भ में समझाते हैं और कहते हैं कि ‘‘अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियों को संयमरूप अग्नियों में हवन किया करते हैं और दूसरे योगी लोग शब्दादि समस्त विषयों को इन्द्रियरूप अग्नियों में हवन किया करते हैं’’ (4.26)। संक्षेप में, यह बलिदान को बलिदान करने का मार्ग है।
श्रीकृष्ण कई बार इंद्रियों और इंद्रिय विषयों के बीच के संबंध की व्याख्या करते हैं। प्रमुख व्याख्या यह है कि इंद्रियां उनके संबंधित विषयों के लिए स्वाभाविक रूप से राग और द्वेष का अनुभव करती हैं और इस द्वंद्व के बारे में हमें जागरूक होना चाहिए (3.34)।
विशिष्ट प्रयास से कर्मयोगी इन्द्रियों और विषयों के बीच के सेतु को तोड़ता है जो कि पहले भाग में वर्णित बलिदान है। दूसरा भाग एक ज्ञानयोगी के लिए है जो जागरूकता के माध्यम से साक्षी बनकर बलिदान को ही बलिदान देता है। दोनों ही स्थितियों में हम द्वंद्वातीत हो जाते हैं।