Gita Acharan |Hindi

श्री कृष्ण कहते हैं कि ( 3.35) अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए - परधर्म से गुणरहित स्वधर्म अति उत्तम है। स्वधर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और परधर्म भय को देने वाला है। यह जटिल श्लोक हमारे मन में स्पष्टता से अधिक संदेह पैदा करता है।

 

एक अर्थ में यह श्लोक कुरुक्षेत्र युद्ध में अर्जुन के लिए विशुद्ध रूप से प्रासंगिक है। अर्जुन के पास उस क्षण तक योद्धा धर्म है और अगले क्षण में संत बनने की इच्छा रखता है। इस परिवर्तन की संभावना नहीं है और श्री कृष्ण इस श्लोक में यही संकेत कर रहे हैं।

 

धर्म एक है लेकिन हम इसे अलग- अलग तरीकों से देखते हैं। जैसे एक कहानी है कि 5 नेत्रहीन व्यक्ति एक ही हाथी को हाथ लगा कर अलग तरह से महसूस करते हैं। यदि उनमें से कोई उसे लम्बा दांत समझता है, तो यह उसका स्वधर्म है।

 

श्लोक आगे संकेत करता है कि जो व्यक्ति इसे दांत समझता है उसे अपने पथ का अनुसरण करते रहना चाहिए, न कि अन्य नेत्रहीन व्यक्ति के विचार को अपनाने की कोशिश करनी चाहिए जो इसे पैर या पूंछ के रूप में महसूस करता है।

 

अगला सवाल यह है कि किसकी धारणा सही है। वे सभी अपने-अपने तरीके से सही हैं और इसलिए श्री कृष्ण तुलना को प्रोत्साहित नहीं करते और कहते हैं कि गुणरहित होने पर भी स्वधर्म का पालन करें।

 

धर्म बिजली के समान है जो हमारे घरों में प्रवेश करती है और जिस उपकरण को शक्ति देती है उसके आधार पर अलग-अलग रूप से प्रकट होती है। प्रत्येक उपकरण की अपनी प्रकृति होती है और एक पंखा, टी.वी. बनने का सपना नहीं देख सकता।

 

श्री कृष्ण ने पहले संकेत दिया (3.33) कि दमन हमें कहीं नहीं ले जाता । परधर्म को अपनाने का मतलब स्वधर्म को दबा देना है। दमन बहिष्करण की ओर ले जाता है जबकि धर्म सभी व्यक्तिगत धारणाओं का मिलन है जैसा कि नेत्रहीन पुरुषों और हाथी के मामले में होता है।


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