
श्री कृष्ण कहते हैं कि ( 3.27) वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, तो भी जिसका अंतः करण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूं' ऐसा मानता है। विभाग और कर्मविभाग के तत्व को जानने वाला ज्ञानयोगी, सम्पूर्ण गुण ही गुणों से बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता ( 3.28)।
गीता का मूल उपदेश है कि किसी भी कार्य का कोई कर्त्ता नहीं है, बल्कि गुणों के बीच परस्पर प्रभाव का नतीजा है।
सत्व, तमो और रजो नाम के तीन गुण हममें से प्रत्येक में अलग- अलग अनुपात में मौजूद हैं। सत्व ज्ञान के प्रति लगाव है; रजो गुण कर्म के प्रति आसक्ति है और तमस आलस्य की ओर ले जाता है।
यह ध्यान करने योग्य है कि कोई भी गुण किसी अन्य गुण से श्रेष्ठ या निम्न नहीं है; वे सिर्फ गुण हैं। उदाहरण
के लिए, यदि किसी में रजो गुण का उच्च प्रतिशत है, तो वे कार्रवाई प्रति गहन रूप से प्रवृत्त होंगे और सो नहीं पाएंगे, जबकि सोने के लिए तमस गुण की आवश्यकता होती है।
दूसरे, हमें उस गुण से अवगत होने की आवश्यकता है, जो वर्तमान समय में हम पर हावी है। उदाहरण के लिए, तमस के प्रभाव में, आलसी होकर व्यक्ति सोफे पर बैठकर टी.वी. देखता है। दूसरी ओर, यदि उनका जीवनसाथी रजो गुण में हो, तो वह खरीदारी, मूवी, दोस्तों से मिलने आदि के लिए बाहर जाना चाहेगा। इसका परिणाम तमो और रजो गुणों के बीच परस्पर प्रभाव के कारण होगा। गुणों की परस्पर क्रिया से प्रेरित ऐसी ही परिस्थितियां कार्यस्थलों पर भी होती हैं।
श्री कृष्ण बताते हैं (14.22- 14.26) कि हमें गुणों को पार कर गुणातीत होना चाहिए, जो एक ऐसी स्थिति है, जहां हम उन गुणों से अवगत होते हैं, जो वर्तमान क्षण में हम पर हावी हैं और हम प्रकट दुनिया में उनके परस्पर प्रभाव के केवल एक गवाह बने रहते हैं।