Gita Acharan |Hindi

एक फल विकसित होने और पकने के लिए अपने मूल पेड़ से पोषक तत्व प्राप्त करता है। फिर वह अपनी यात्रा शुरू करने के लिए पेड़ से अलग हो जाता है। मूल वृक्ष से मुक्ति की यात्रा से अंत में स्वयं वृक्ष बनने तक विभिन्न क्रियाएं शामिल हैं।

दूसरी ओर एक कच्चे फल को वृक्ष से तब तक जुड़ा रहना चाहिए जब तक कि वह पक न जाए, यानी अपनी यात्रा स्वयं शुरू करने के लिए सक्षम न हो जाए।

 

परन्तु एक पके फल को कच्चे फल को पेड़ छोड़ने का लालच नहीं देना चाहिए, क्योंकि वह अभी तक एक स्वतंत्र यात्रा शुरू करने के लिए तैयार नहीं है। यदि यह मूल वृक्ष से आवश्यक पोषण प्राप्त करने के लिए समय नहीं देता है तो नष्ट हो जाएगा।

इसीलिए श्री कृष्ण कहते हैं कि (3.26) परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्र विहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भली-भांतिकरता हुआ उनसे भी उसी तरह करवाए।

 

श्री कृष्ण ने जो कहा वह उन व्यक्तियों के बारे में है जो क्रिया के अंगों को बलपूर्वक नियंत्रित करते हैं, लेकिन जिनका मन अभी भी इंद्रिय विषयों के विचारों के चारों ओर घूमता है, वह उन्हें दम्भी कहते हैं जो स्वयं को बहा रहे हैं और यह उस अज्ञानी की स्थिति से अलग नहीं होगा जिसके कार्यों को एक बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा जबरन रोक दिया गया हो।

 

100 छात्रों की एक कक्षा में, प्रत्येक छात्र एक ही पाठ को अपनी समझ और मन की स्थिति के आधार पर अलग-अलग तरीके से समझता है। इसी प्रकार, एक संन्यासी जो जीवन में प्रेरित कार्यों की निरर्थकता को महसूस करता है, उसे ब्रह्मचारी को पारिवारिक जीवन से दूर रहने के लिए प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए क्योंकि ब्रह्मचारी अपने पारिवारिक जीवन से ही प्रेरित कार्यों की निरर्थकता को बेहतर ढंग से सीख सकता है। इसके सिवा और कोई रास्ता नहीं है।

 

श्री कृष्ण ने अर्जुन में गीता सीखने की जिज्ञासा के जागने का इंतजार किया। तब तक उन्होंने उसे सांसारिक कार्य करने और जीवन में सुख-दुख से गुजरने दिया। सही क्षण आने पर ही गीता का उपदेश दिया। इस प्रकार, सीखना तब होता है जब इसके लिए एक आंतरिक भूख होती है जहां प्रत्येक चीज और जीवन की प्रत्येक स्थिति हमारी शिक्षक बन सकती है।


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