
जीने के दो तरीके हैं- एक है 'संघर्ष' और दूसरा 'समर्पण'। समर्पण युद्ध में पराजितों के समर्पण की तरह असहाय समर्पण नहीं है, यह जागरूकता और सक्रिय स्वीकृति के साथ समर्पण है।
दूसरों से आगे रहने की सोच ही संघर्ष है। जो हमें दिया गया है उससे अधिक पाने के लिए और हमारे पास जो कुछ है उससे अलग कुछ पाने की कोशिश ही संघर्ष है। दूसरी ओर, समर्पण हर जीवित क्षण के लिए कृतज्ञता है।
श्री कृष्ण कहते हैं (3.16) कि "यदि कोई इंद्रियों के द्वारा भोगों में रमण करता है और सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं बरतता, तो उसका जीवन व्यर्थ है।"
इन्द्रियों की तृप्ति के पथ पर चल रहे किसी व्यक्ति के लिए यह संघर्ष का जीवन है, क्योंकि इन्द्रियां कभी तृप्त नहीं हो सकतीं। यह संघर्ष तनाव, चिंता और दुख लाता है, जो व्यर्थ का जीवन है।
श्री कृष्ण सृष्टिचक्र (3.14) को वर्षा के उदाहरण से समझाते हैं। बारिश पानी की निःस्वार्थ क्रिया का रूप है जहां पानी वाष्पित होकर निःस्वार्थ रूप से बारिश के रूप में बरसता है। ऐसा निःस्वार्थ कर्म ही सर्वोच्च शक्ति का स्रोत है ( 3.15 )।
निःस्वार्थ कर्मों के चक्र पर चलना ही समर्पण का जीवन है जो हमें आनंदमय बनाता है।
श्री कृष्ण (3.17) कहते हैं कि "जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही संतुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्त्तव्य नहीं है। "
ऐसा जीवन इंद्रियों से स्वतंत्र है, जहां अस्तित्व की इच्छा से अलग हमारी कोई इच्छा नहीं है। जब अस्तित्व की इच्छा ही हमारी इच्छ हो तो हमारा कोई अलग कर्त्तव्य नहीं रह जाता। निःस्वार्थ कर्म करते हुए हमारे रास्ते में जो कुछ भी आता है, यह उसकी शुद्ध स्वीकृति है ।
उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से (3.18) तथा सम्पूर्ण प्राणियों से भी उनका सम्बन्ध नहीं रहता है।
'स्वयं के साथ तृप्त' गीता में एक मूल उपदेश है, जो स्वयं में आनन्दित और स्वयं से संतुष्ट है।
जब कोई स्वयं से संतुष्ट होता है, तो हमारे अधिकारों और क्षमताओं के बारे में कोई शिकायत या तुलना नहीं होती।