
परमात्मा के रूप में आते हुए, श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘‘जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मेरे अंतर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता’’ (6.30)। यह श्लोक भक्ति योग की नींव है जहां साधक हर जगह और हर स्थिति में परमात्मा का अनुभव करते हैं।
‘यह वह है’ का मंत्र - चमत्कार कर सकता है अगर हम इसकी गहराई में जाएं, जहां ‘यह’ कोई भी व्यक्ति या वस्तु या स्थिति हो सकती है। एक बार जब हम ‘यह’ जान लेते हैं, तो हम सभी में परमात्मा को देख पाएंगे, चाहे वह व्यक्ति मित्र है या शत्रु; मदद करने वाला है या चोट पहुँचाने वाला; प्रशंसा है या आलोचना; कोई वस्तु सोने के समान मूल्यवान है या पत्थर के समान मूल्यहीन; परिस्थितियां अनुकूल हैं या प्रतिकूल; भयावह हैं या सुखद; खुशी के क्षण हैं या दर्द के; जीत है या हार; और यह सूची खत्म ही नहीं होती।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिस तरह से लोग मेरे प्रति समर्पित हैं, उसी में मैं खुद को प्रकट करता हूं (4.11) और मेरे लिए कोई भी अप्रिय नहीं है और न कोई प्रिय है (9.29)।
ये बातें हमें इसे समझने में मदद करेंगी जब श्रीकृष्ण एक दिलचस्प तरीके से कहते हैं कि ‘वह मेरे लिए अदृश्य नहीं है जो मुझे हर जगह देखता है’। इसका तात्पर्य यह है कि हममें विभाजन की माप परमात्मा से हमारी दूरी को दर्शाती है।
वे आगे आश्वासन देते हैं कि ‘‘जो पुरुष एकीभाव में स्थित होकर सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझको भजता है, वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है’’ (6.31)।
यह इस बारे में है कि हम क्या हैं लेकिन इस बारे में नहीं कि हम क्या करते हैं या हमारे पास क्या है।
भौतिक संसार सुख और दु:ख के ध्रुवों से भरा पड़ा है। चाहे हम अमीर हों या प्रभावशाली, हम क्रोध, तनाव और निराशा जैसे दु:ख के द्वंद्वों से बच नहीं सकते। इसीलिए श्रीकृष्ण हमें खुद को एकत्व में स्थापित करने के लिए कहते हैं जो हमें ध्रुवों और विभाजन से परे ले जाएगा।