
शुरु आाती ब्रह्माण्ड के सृजन के समय, यह सिर्फ ऊर्जा थी और बाद में पदार्थ का आकार लिया।
वैज्ञानिक रूप से, यह स्वीकार किया जाता है कि ब्रह्माण्ड में तापमान, घनत्व और मैटर-एंटीमैटर के अनुपात में सूक्ष्म (क्वांटम) भिन्नता थी और इन भिन्नताओं का कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है।
ये परिस्थितियाँ ही पदार्थ के निर्माण के लिए जिम्मेदार हैं और विज्ञान इस बात से सहमत है कि आज हम अपने चारों ओर जो विविधता देखते हैं उसे बनाने के लिए भगवान पासा खेलते हैं।
इस संबंध में श्रीकृष्ण कहते हैं कि उनकी निम्न प्रकृति अष्टांगिक है। अग्नि, पृथ्वी, जल, वायु और आकाश भौतिक संसार के लिए हैं और मन, बुद्धि और अहंकार जीवों के लिए हैं (7.4)।
अग्नि का अर्थ उस ऊर्जा से है जो आदिकाल से मौजूद है। ऊर्जा पदार्थ में परिवर्तित हुआ जिसमें एक ठोस अवस्था (पृथ्वी), तरल अवस्था (जल) और गैसीय अवस्था (वायु) हैं। उन सभी को रखने के लिए जगह यानी आकाश चाहिए।
जीवों के मामले में, जीवित रहने के लिए उनमें एक भेद करने वाली प्रणाली की आवश्यकता होती है।
मन सोच का बुनियादी स्तर है (प्रणाली 1 - त्वरित और सहज ज्ञान युक्त) और बुद्धि उच्च स्तर की सोच है (प्रणाली 2 - धीमी और चिंतनशील)। अहंकार अंतिम बाधा है, जिसे हमें परमात्मा की उच्च प्रकृति तक पहुँचने के लिए पार करना है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि उनकी उच्च प्रकृति जीवन तत्व है जो ब्रह्माण्ड को सहारा देती है (7.5), जैसे एक अदृश्य सूत्र मणियों को बांधकर रखता है (7.7)।
श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्व से अर्थात यथार्त रूप से जानता है’’ (7.3)।
इसका मतलब यह है कि, अहंकार की बाधा को पार करना एक कठिन कार्य है और यहां उसी का संकेत दिया गया है।
इसे देखने का एक और तरीका यह है कि हमने 13.8 अरब वर्षों की क्रमागत उन्नति की यात्रा के दौरान जाने-अनजाने में बहुत सारी धूल-मिट्टी इक_ी कर ली।
पहला कदम इस धूल-मिट्टी के बारे में जागरूक होना है जो अहंकार के रूप में प्रकट होती है और दूसरा कदम इससे छुटकारा पाना है|