
‘नमस्ते’ या ‘नमस्कार’ का प्रयोग भारतीय सन्दर्भ में एक दूसरे का अभिवादन करने के लिए किया जाता है। इसका अर्थ है ‘आप में देवत्व को प्रणाम’। विभिन्न संस्कृतियों में प्रयुक्त अभिवादन ऐसा ही संदेश देते हैं और इसकी उत्पत्ति सभी प्राणियों में स्वयं को और स्वयं में ‘‘सभी प्राणियों को समान भाव से देखना है’’ (6.29)।
जब इस तरह के अभिवादन का जागरूकता के साथ आदान-प्रदान किया जाता है, तो उनमें स्वयं के साथ-साथ दूसरों में भी देवत्व को महसूस करने की क्षमता होती है।
‘एक ही तत्व को हर जगह देखना’ निराकार का मार्ग है, जिसे कठिन मार्ग माना जाता है। श्रीकृष्ण तुरंत इसे आसान बनाते हैं और कहते हैं कि मुझे हर जगह देखो और सभी को मुझ में देखो, जो साकार का मार्ग है (6.30)।
ये दोनों श्लोक साकार या निराकार के माध्यम से परमात्मा को प्राप्त करने में मदद करते हैं और सभी आध्यात्मिक पथों की नींव इन दोनों में से एक में होती है।
अव्यक्त असीम है जबकि व्यक्त विभाजनकारी है और सीमाओं से बंधा हुआ है। स्वयं में सब और सब में स्वयं की अनुभूति अव्यक्त के साथ एकता के अलावा और कुछ नहीं है। आधुनिक सन्दर्भ में, इसे संतृप्त मानसिकता या जीत-जीत की मानसिकता भी कहा जाता है और इसके अभाव में यह एक असंतृप्त मानसिकता है जिसके परिणामस्वरूप हार-हार होती है।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि अव्यक्त भाव के बारे में अहसास होने के बाद भी, व्यक्त दुनिया की मूल बातें नहीं बदलती हैं। हमें फिर भी भूख लगेगी और इसलिए जीवित रहने के लिए कर्म करते रहना चाहिए (3.8)। इसे पहले श्रीकृष्ण द्वारा करने योग्य कर्म के रूप में संदर्भित किया गया था (6.1), जो कि वर्तमान क्षण में हमें हमारी सर्वोत्तम क्षमताओं के साथ दिए गए कार्य को करने के अलावा और कुछ नहीं है।
यह एक नाटक में भूमिका निभाने जैसा है जहां अन्य कलाकारों के द्वारा की गयी आलोचना या प्रशंसा हमें प्रभावित नहीं करती क्योंकि हम उनसे नहीं जुड़े हैं।
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