श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिसका मन और बुद्धि उस (आत्मा) में स्थित है और जिनके पाप जागरूकता से दूर हो गए हैं, वे बिना किसी वापसी की स्थिति में अर्थात शास्वत अवस्था में पहुंच जाते हैं (5.17)।
अनजान जीना अँधेरे में जीने जैसा है, जहां हम गिरते रहते हैं और खुद को चोट पहुँचाते रहते हैं।
अगला स्तर प्रकाश की कुछ चमक का अनुभव करने जैसा है जहां व्यक्ति एक पल के लिए जागरूकता प्राप्त करता है लेकिन फिर से अज्ञानता से घिर जाता है।
अंतिम चरण सूर्य के प्रकाश की तरह स्थायी प्रकाश होने जैसा है जहां जागरूकता एक महत्वपूर्ण स्तर पर पहुंच जाती है और कोई वहां से कभी नहीं लौटता है।
बिना वापसी की इस अवस्था को मोक्ष या परम स्वतंत्रता भी कहा जाता है। यह मेरी स्वतंत्रता नहीं है, बल्कि ‘मैं’ से मुक्ति है क्योंकि सभी समस्याएँ ‘मैं’ के कारण हैं।
समत्व तब होता है जब कोई वापस न आने की स्थिति प्राप्त करता है और इस संबंध में, श्रीकृष्ण कहते हैं कि, ‘‘वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी समदर्शी ही होते हैं’’ (5.18)। समत्व गीता के मूलभूत सिद्धान्तों में से एक है।
स्वयं को सभी प्राणियों में स्वयं के रूप में महसूस करना समत्व के मूल में है (5.7)। यह पहचानना है कि दूसरों के पास भी हमारे जैसी अच्छाइयां हैं और हमारे पास भी दूसरों की तरह बुराइयाँ हैं।
अगला स्तर स्पष्ट विरोधाभासों या मतभेदों को समान रूप से देखने की क्षमता है, जैसे किसी पशु और पशु खाने वाले को समान देखना।
यह द्वेष और नापसंद का त्याग करना है जो अज्ञानता के उत्पाद हैं (5.3)। यह हमारे लाभ के साथ-साथ हानियों के लिए एक ही मानदंड अपनाना है।
समत्व केवल एक भावना है जो जागरूकता के माध्यम से आती है। असंतुलित मन से जो कर्म किए जाते हैं, वह अवश्य ही दु:ख लाते हैं।
श्रीकृष्ण आश्वासन देते हैं कि यहां (इस दुनिया में और इस समय) प्रकट अस्तित्व के द्वंद्वों (जन्म/मृत्यु) पर समान/निष्पक्ष मानसिकता वालों ने जीत हासिल की है और वे निर्दोष और निष्पक्ष ब्रह्म में स्थापित होंगे (5.19)।