Gita Acharan |Hindi

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के 2.11 से 2.53 तक श्लोकों में सुध सांख्य (जगरूपता) का खुलासा किया, जो अर्जुन के लिए पूरी तरह से नयी बात थी। अर्जुन आगले श्लोक (2.54)  में ‘स्थितप्रज्ञ’ (जो ज्ञान प्राप्त कर समाधि में जा चुका हो) के बारे में जानना चाहता है, कि उसके लक्षण क्या है और वह कैसे बोलता है, कैसे आचरण करता है।

 

श्लोक 2.55 में अर्जुन को स्पष्टीकरण देने के लिए श्रीकृष्ण तुलना करने की चाह रखनेवाले हमारे दिमाग की मदद करने के लिए मानक और बेंचमार्क निर्धारित करते हैं।

 

श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभांति त्याग देता है और आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह ‘स्थितप्रज्ञ’ कहा जाता है। जब कोई स्वयं से संतुष्ट होता है, तो इच्छाएं अपने आप नष्ट हो जाती हैं। जैसे-जैसे इच्छाएँ नष्ट होती हैं, उनके सभी कार्य निष्काम कर्म बन जाते हैं।

 

हम जो हैं उससे अलग होने की हमेशा इच्छा रखते हैं। हम बहुत जल्दी ऊब जाते हैं। इस अवस्था को अर्थशास्त्र में इस प्रकार कहते है कि –‘ पुरी हो जानेवाली इच्छा हमें प्रेरित नहीं कर पाती’।

 

 दुर्भाग्य यह है कि, हर कोई इसे अन्यों पर एक युक्ति के रूप में उपयोग करता है, जिससे ‘स्थितप्रज्ञ’ बनना कठिन हो जाता है। उदाहरण के लिए, उपभोक्ता उत्पाद कंपनियां नियमित रूप से नए उत्पाद/मॉडल पेश करती हैं, क्योंकि वे जानती हैं कि हम समय-समय पर एक नया मॉडल या चीज लेना चाहते हैं।

 

दूसरी ओर, अगर हम खुद से संतुष्ट नहीं हैं या कम से कम यह मानते हैं कि हम खुद खुश होने में सक्षम नहीं हैं, तो हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि परिवार सहित अन्य लोग हमसे खुश होंगे।

 

इसके विपरीत, हम उनसे भी आनंद कैसे प्राप्त कर सकते हैं जो स्वयं को संतृप्त करने में असमर्थ हैं। इच्छाओं के त्याग के लिए इस गहरी समझ की आवश्यकता है कि सुख के लिए हर पीछा एक मृगतृष्णा का पीछा करने जैसा है। हमारे जीवन के सभी अनुभव इस मूल सत्य की पुष्टि करते हैं। इच्छाओं का त्याग करने का व्यवहारिक तरीका है कि उनकी तीव्रता को कम किया जाए और इस से हम देखेंगे कि कितनी शांति मिलती है।


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