
श्रीकृष्ण कहते हैं, "अपने कल्याण के लिए मेरे परम वचन को फिर से सुनो (10.1)। न तो देवता और न ही महर्षि मेरी उत्पत्ति को जानते हैं क्योंकि मैं ही उन सभी की उत्पत्ति का स्रोत हूँ" (10.2)।
अपने मूल को जानना स्वाभाविक रूप से कठिन होता है। एक पेड़ उस बीज को कभी नहीं जान सकता जिसने उसे जन्म दिया; एक आंख स्वयं को नहीं देख सकती।
इस प्रकार की सीमा हमारी उत्पत्ति को समझने की हमारी क्षमता को क्षीण करती है और हमारी इंद्रियों की यही सीमा परमात्मा की उत्पत्ति के लिए भी लागू होती है।
ऐसी सीमाओं को पार करने के लिए एक सरल उपाय यह है कि आंख को एक दर्पण दिखाया जाए ताकि वह स्वयं को देख सके। श्रीकृष्ण ऐसे कई उदाहरण इस अध्याय में प्रस्तुत करते हैं जो उनकी झलक दिखलाने वाले दर्पण की तरह काम कर सकते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं, "जो कोई मुझे अजन्मा, अनादि और समस्त लोकों के महान ईश्वर के रूप में जानता है, केवल वही मोह रहित और समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं" (10.3)। श्रीकृष्ण अस्तित्वगत स्तर पर जानने की बात कर रहे हैं, न कि शब्दों को केवल रट लेने के बारे में। इसके लिए अपने अहंकार को त्याग कर अस्तित्व के साथ एक होना है, जैसे नमक की गुड़िया समुद्र में घुल जाती है।
हमारा अहंकार ही हमारा सबसे बड़ा भ्रम है और इसे छोड़ना ही इस पर विजय प्राप्त करना है।
कोई भी कर्म पाप बन जाता है जब उसमें 'मैं' जुड़ जाता है और अहंकार से मुक्त होना पापों से मुक्ति है।
अपनी विशेषताओं के बारे में श्रीकृष्ण कहते हैं, "मुझसे ही मनुष्यों में विभिन्न प्रकार के गुण उत्पन्न होते हैं, जैसे बुद्धि, ज्ञान, विचारों की स्पष्टता, क्षमा, सच्चाई, इंद्रियों और मन पर नियंत्रण, सुख और दुःख, जन्म और मृत्यु, भय और साहस, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, यश और अपयश” (10.4 और 10.5)।
जब हम बिना किसी ईर्ष्या के दूसरों में खुशी या साहस देखते हैं या जब हम जन्म और मृत्यु देखते हैं या जब हम अपने चारों ओर सुख और दुःख देखते हैं, तो ऐसी परिस्थितियों में प्रभु को देखना है। यह एहसास करना है कि क्षमा, तृप्ति और सच्चाई किसी की कमजोरियां नहीं बल्कि प्रभु की झलक हैं।