
श्रीकृष्ण कहते हैं, "मैं सभी जीवों के प्रति समभाव रखता हूँ। मेरे लिए कोई भी द्वेष्य नहीं है और न ही प्रिय है। लेकिन जो प्रेम से मेरी भक्ति करते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूँ" (9.29)।
हम देखते हैं कि कुछ लोग स्वास्थ्य, धन, शक्ति और प्रसिद्धि के मामले में भाग्यशाली होते हैं जबकि कुछ नहीं होते। इससे प्रभु के पक्षपात करने का आभास होता है। परमात्मा की कृपा व प्रेम बिना किसी शर्त के होती है। यद्यपि हमारे लिए प्रेम तब प्रवाहित होता है जब कुछ शर्तें पूरी होती हैं। इन मुद्दों के कारण उक्त श्लोक को समझना कठिन हो जाता है।
इस श्लोक की जटिलताओं को समझने के लिए वर्षा सबसे अच्छा उदाहरण है। बारिश के समय यदि हम कटोरा रखते हैं तो उसमें पानी इकट्ठा हो जाता है। कटोरा जितना बड़ा होगा, पानी उतना ही अधिक इकट्ठा होगा। लेकिन अगर इसे उल्टा रखा जाए तो पानी एकत्र करना असंभव है।
यदि हम वर्षा को परमात्मा के आशीर्वाद के रूप में लेते हैं, तो यह आशीर्वाद निष्पक्ष रूप से सभी के लिए एक समान उपलब्ध है। आशीर्वाद इकट्ठा करने के लिए कटोरे को सीधा रखना ही भक्ति है।
परमात्मा की कृपा व प्रेम समभावपूर्ण है जिसे निम्नलिखित श्लोकों से समझ सकते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं, "जो भी मेरी शरण में आते हैं, उनका जन्म, वंश, लिंग या जाति चाहे कुछ भी हो, पुण्य कर्म वाले राजर्षि हों या धर्मात्मा ब्राह्मण (ज्ञानी); वे सभी सर्वोच्च गंतव्य को प्राप्त करेंगे (9.32 और 9.33)।
पापी लोग भी यदि मेरी शरण लेते हों तो वे धर्मी माने जाएंगे क्योंकि उन्होंने उचित संकल्प लिया है (9.30)। वे शीघ्र ही धर्मनिष्ठ बन जाएंगे और परम शांति प्राप्त करेंगे। मेरा कोई भी भक्त कभी नष्ट नहीं होता है" (9.31)।
चाहे कोई कितना ही पापी क्यों न हो, दृढ़ संकल्प एवं भक्ति के साथ वह ईश्वर तक पहुंच सकता है।
इस संबंध में, श्रीकृष्ण कहते हैं, "सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे प्रणाम करो। इस प्रकार अपने मन और शरीर को मुझे समर्पित करने से तुम निश्चित रूप से मुझको ही प्राप्त होगे" (9.34)। यह सर्वशक्तिमान की ओर से तत्काल परम स्वतंत्रता (मोक्ष) का आश्वासन है।