
इच्छाओं को छोड़ने के संबंध में सामान्य भय यह है कि यदि हम विकसित होने और सुरक्षा करने की इच्छा छोड़ देंगे तो हमारी, हमारे परिवारों और हमारे संगठनों की देखभाल कौन करेगा। यह स्वाभाविक और तार्किक लगता है।
इस भय को दूर करने के लिए, श्रीकृष्ण ने भक्तों को क्षेम और योग दोनों का आश्वासन दिया (योगः क्षेमं वहाम्यम्) (9.22)। योग ही परम लक्ष्य है और क्षेम का आश्वासन सर्वशक्तिमान परमात्मा की ओर से है।
श्रीकृष्ण भक्त बनने के कुछ आसान तरीके बताते हुए कहते हैं, "भले ही कोई श्रद्धा के साथ किसी अन्य रूप को स्मरण करते हैं, वे भी केवल मुझको ही स्मरण करते हैं (9.23) क्योंकि सभी यज्ञों का भोक्ता और स्वामी मैं ही हूँ (9.24)। यह दर्शाता है कि हमें श्रद्धावान होना चाहिए।
दूसरा, श्रीकृष्ण कहते हैं, "जो कोई भक्त मेरे प्रति प्रेम से श्रद्धापूर्वक मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल अदि अर्पित करता है मैं उस भक्तिपूर्ण अर्पण को स्वीकार करता हूँ" (9.26)। परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए किसी भी अनोखी वस्तु की तलाश किए बिना, हम साधारण और आसानी से उपलब्ध चीजें जैसे पत्ते, फूल, फल या यहां तक कि जल भी अर्पित कर सकते हैं।
श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि, "देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं" (9.25)।
इच्छाओं की पूर्ति के लिए व्यक्ति विभिन्न देवी-देवताओं के अनुष्ठानों का सहारा लेता है, लेकिन जिसने इच्छाओं को ही त्याग दिया वह श्रीकृष्ण तक पहुंच जाता है और उसका कल्याण सुनिश्चित हो जाता है।
श्रद्धावान होना गीता का मूल उपदेश है। यह रिश्तों में प्रतिबद्धता और ईमानदारी; काम के प्रति समर्पण और जिम्मेदारी; परिणामों, चीजों और लोगों के प्रति समभाव; कठिन समय में साहस; भगवान के किसी भी रूप के प्रति भक्ति आदि है। पुस्तकें, गुरु या यहां तक कि ‘चैट जीपीटी’ गीता के बारे में ज्ञान या व्याख्या प्रदान कर सकते हैं जो कि 'जानना' मात्र है। श्रद्धा शुद्ध आंतरिक परिवर्तन है, जो कि 'होना' है और यह हर एक की अपनी यात्रा है।