
श्रीकृष्ण कहते हैं, "तुझ दोषदृष्टि रहित भक्त के लिए इस परम गोपनीय विज्ञानसहित ज्ञान को पुनः भलीभांति कहूँगा जिसको जानकर तुम दुःखरूप संसार से मुक्त हो जाओगे (9.1)।
यह विज्ञानसहित ज्ञान सब विद्याओं का राजा, सब गोपनीयों का राजा, अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला, धर्मयुक्त, साधन करने में बड़ा सुगम और अविनाशी है (9.2)।
इस उपर्युक्त धर्म में श्रद्धारहित पुरुष मुझको न प्राप्त होकर संसारचक्र में भ्रमण करते रहते हैं" (9.3)।
श्रीकृष्ण ने इस राजसी ज्ञान को प्राप्त करने के योग्य होने के लिए दो शर्तें रखीं। श्रद्धावान होना पहली शर्त है क्योंकि श्रद्धा के अभाव में राजसी ज्ञान भी कोरे शब्द मात्र बनकर रह जाता है।
द्वेष से मुक्त होना दूसरी शर्त है, जिसका मतलब है दोष ढूंढने से बचना। जब दो लोग एक ही चीज या स्थिति को दो अलग-अलग तरीकों से देखते हैं, तो मतभेद होना स्वाभाविक है, जिसके कारण हम अपने चारों ओर कड़वाहट देखते हैं। समकालीन संदर्भ में इसे 'हम दुनिया को वैसे ही देखते हैं जैसे हम हैं, लेकिन वैसी नहीं जैसी वह है' के रूप में वर्णित किया जाता है। जब दोषदृष्टि खत्म हो जाती है तो विभाजन खत्म हो जाते हैं और हर चीज को ईश्वर के आशीर्वाद के रूप में सक्रिय रूप से स्वीकार कर लिया जाता है।
एक भक्त होने के लिए इन दो शर्तों की पूर्ति आवश्यक है। यह विभिन्न मान्यताओं के द्वारा थोपे गए कर्मकांडों को करने से परे है।
अर्जुन ने एक भक्त की तरह इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए अपने आप को तैयार दिखाया। इसलिए श्रीकृष्ण ने इस ज्ञान के बारे में बताना शुरू किया और आश्वासन दिया कि एक बार यह जानने के बाद व्यक्ति संसार की बुराइयों से मुक्त हो जाता है।
जानना 'होने' के स्तर पर होना चाहिए न कि ‘शब्दों’ के स्तर पर। शब्दों के स्तर पर जानने से अहंकार में वृद्धि होगी क्योंकि व्यक्ति को लगता है कि वह दूसरों की तुलना में अधिक जानता है।
जब जानना 'होने' के स्तर पर होता है तो व्यक्ति परम स्वतंत्रता या मोक्ष प्राप्त करता है। यह सत्य को जानने के साथ-साथ जीवन के हर पल में सच्चा होने जैसा है।