
प्रत्येक संस्कृति ने समाज में शांति के लिए क्या करें और क्या न करें जैसी बातें तय की हैं और न्याय प्रणाली के विकास के साथ, 'क्या न करें' दंडनीय अपराध बन गए हैं।
आपराधिक न्यायशास्त्र में अपराध में उपस्थित होने के लिए 'इरादा' और ‘निष्पादन’दोनों की आवश्यकता होती है । 'इरादा' पूरा करने से अपराध होता है। किसी भी व्यक्ति को अपराध का दोषी ठहराने के लिए इन दोनों का प्रमाण आवश्यक है ।
यदि हम 'इरादा' को 'संकल्प' और 'निष्पादन' को 'काम' के रूप में लेते हैं, तो हम श्री कृष्ण की कहावत को समझ सकते हैं कि " जिसके सम्पूर्ण शास्त्र समस्त कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हो गए हैं, उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं।" (4.19)
सामान्य तौर पर, समाज तब तक संतुष्ट रहता है, जब तक कि कोई अपराध न हो, भले ही कोई मन में 'अपराध
का इरादा' लिए घूम रहा हो लेकिन श्री कृष्ण कहते हैं कि हमें 'काम' तो छोड़ना ही चाहिए, साथ में 'संकल्प' को भी त्याग देना चाहिए।
कानून के डर, संसाधनों की कमी या किसी की प्रतिष्ठा बनाए रखने जैसे विभिन्न कारणों से मनुष्य 'काम' छोड़ता है लेकिन 'संकल्प' बहुत गहरा है और जब तक यह जीवित रहता है तब तक कमजोर घड़ी में उसके 'काम' बनी रहती है, इसलिए श्री कृष्ण हमें न केवल 'काम'को, बल्कि 'संकल्प' को भी छोड़ने के लिए कहते हैं, जो इच्छाओं का चालक है।
हमें बचपन से बार-बार कहा जाता है कि हममें अकादमिक, आर्थिक और साथ ही व्यक्तिगत विकास को प्राप्त करने का दृढ़ संकल्प और इच्छा होनी चाहिए, जिसकी वजह से इस सत्य को समझने की दिशा में हमारी प्रगति कठिन हो जाती है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इच्छा तो इच्छा ही होती है, चाहे वह महान हो या नीच ।
जब 'काम' और' संकल्प' को छोड़ दिया जाता है, तो व्यक्ति निश्चल समाधि को प्राप्त करता है जो आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्ति है। ऐसी स्थिति से उत्पन्न होने वाले कर्म इसी जागरूकता से जलकर और शुद्ध हो जाते हैं।