
श्री कृष्ण कहते हैं कि कर्मों के फल में मेरी कामना नहीं है, इसलिए मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बंधता (4.14 ) । यह श्री कृष्ण के शब्दों (2.47) को पुष्ट करता है कि कर्मों पर हमारा अधिकार है, कर्मफल पर नहीं ।
परमात्मा के रूप में, श्री कृष्ण भगवान भी उसी का अनुसरण करते हैं और हमें (4.13) बताते हैं कि वह कर्त्ता नहीं हैं, भले ही उन्होंने मनुष्यों के बीच गुणों और कर्मों के आधार पर विभिन्न विभाजनों का निर्माण किया, जो कर्त्तापन की अनुपस्थिति का संकेत देता है।
उन्होंने आगे कहा कि पूर्वकाल में मुमुक्षुओं (मुक्त आत्मा) ने भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किए हैं इसलिए तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किए जाने वाले कर्मों को ही कर (4.15)।
अपने जीवन के सामान्य क्रम में, हम कर्मफल प्राप्त करने के लिए कर्म करते हैं। हालांकि, जब हमें कर्म- फल छोड़ने के लिए कहा जाता है, तो हम कर्मों को भी छोड़ देते हैं। श्री कृष्ण यहां त्याग के लिए एक पूरी तरह से अलग प्रतिमान प्रकट करते हैं, जहां वह सलाह देते हैं कि हम
कर्म करते रहें, लेकिन कर्मफल और कर्त्तापन दोनों के प्रति लगाव को छोड़कर। अर्जुन को युद्ध लड़ने की उनकी सलाह, जो एक और कर्म है, को इसी संदर्भ में देखी जानी चाहिए।
हमारे कार्यों में सचेतन रूप से कर्त्तापन छोड़ना एक कठिन कार्य है लेकिन हम सभी अक्सर 'कर्त्तापन' के बिना कार्य करते हैं, जब हम नृत्य, पेंटिंग, पढ़ना, शिक्षण, बागवानी, खाना पकाने, खेल और यहां तक कि सर्जरी जैसी गतिविधियों में गहराई से शामिल होते हैं। मन की इस अवस्था को आधुनिक मनोविज्ञान में' प्रवाह' (फ्लो) की अवस्था कहा गया है।
सार यह है कि ऐसे खूबसूरत पलों को पहचानें और जीवन के सभी क्षेत्रों में उनका विस्तार करते रहें, इस एहसास के साथ कि ब्रह्मांड हमारे प्रयासों से प्रतिध्वनित होगा ।
जीवन अपने आप में एक आनंद और चमत्कार है। इसे पूरा करने के लिए कर्तापन या कर्मफल की जरूरत नहीं है। हम कर्म के बंधन से मुक्ति तब प्राप्त करते हैं, जब हम कर्त्तापन और कर्मफल दोनों को छोड़ देते हैं और परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं।