
गीता में अर्जुन और श्री कृष्ण दोनों 'मैं' का प्रयोग करते हैं, लेकिन अर्थ और उपयोग के संदर्भ अलग हैं। अर्जुन का 'मैं उनके भौतिक शरीर, संपत्ति, भावनाओं और विश्वासों को दर्शाता है, जो सिर्फ उनके परिवार, दोस्तों और रिश्तेदारों तक फैले हुए हैं। हमारी स्थिति अर्जुन से भिन्न नहीं है । अनिवार्य रूप से, हम कुछ चीजों को विशेष रूप से अपना मानते हैं और शेष को नहीं ।
जब श्री कृष्ण 'मैं' का प्रयोग करते हैं तो यह समावेशी होता है । हम इन्द्रियों की सीमा की वजह से विषयों में अंतर्विरोध महसूस करते हैं और श्री कृष्ण की 'मैं' में ये सारे अंतर्विरोध शामिल हैं तथा वे उसी क्रम में कहीं और कहते हैं, 'मैं मृत्यु के साथ-साथ जन्म भी हूं।'
श्री कृष्ण सागर हैं, हम समुद्र में बूंदें हैं लेकिन अहंकार के कारण हम - अपने आप को अलग मानते हैं। जब एक बूंद निजता के भ्रम को त्यागकर सागर से मिल जाती है, तो वह सागर बन जाती है। श्री कृष्ण इसे इंगित करते हैं, जब वह कहते हैं कि (4.9) मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात अलौकिक हैं, इस प्रकार जो मनुष्य तत्व से जान लेता है, वह शरीर को
त्यागकर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है।
निश्चय ही, बोध का अर्थ है अहंकार का त्याग और अंतर्विरोधों को स्वीकार करने की क्षमता ।
श्री कृष्ण वीतराग शब्द का उपयोग करते हैं, (4.10) जो न तो राग है और न ही विराग, बल्कि एक तीसरा चरण है, जहां राग और विराग को समान माना जाता है, जब कोई उनका अनुभव कर रहा है। यही बात भय और क्रोध पर भी लागू होती है।
श्री कृष्ण एक और शब्द ज्ञान- तप का प्रयोग करते हैं। तप और कुछ नहीं बल्कि जीने का एक अनुशासित तरीका है और हममें से कई लोग इसका अभ्यास करते हैं। अज्ञान के साथ किया गया तप, ऐन्द्रिक सुखों और भौतिक संपदाओं की तलाश के लिए एक गहन खोज बन जाता है। श्री कृष्ण हमें ज्ञान - तप का अनुसरण करने की सलाह देते हैं, जो जागरूक अनुशासित जीवन है।
उनका कहना है कि (4.10) पहले भी जिसके राग, भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गए थे और जो मुझमें अनन्य प्रेमपूर्वक स्थिर रहते थे, ऐसे मेरे आश्रित रहने वाले बहुत से भक्त ज्ञानरूप तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।