कृष्ण ने अर्जुन से कहा (2.25) कि आत्मा अदृश्य, अकल्पनीय और अपरिवर्तनीय है और एक बार जब आप इस बात को समझ जाते हैं, तो शरीर के लिए शोक करने की कोई आवश्यकता नहीं रहती।

कृष्ण यह भी कहते हैं कि (2.28) सभी प्राणी अपने जन्म से पहले अव्यक्त थे, वे अपने जन्म और मृत्यु के बीच प्रकट होते हैं और अपनी मृत्यु के बाद एक बार फिर अव्यक्त हो जाते हैं।

कई संस्कृतियां इसे समझाने के लिए समुद्र और लहर से तुलना की जाती हैं। सागर अदृश्यता का प्रतिनिधित्व करता है और लहर प्रकट का प्रतिनिधित्व करती है। समुद्र से कुछ समय के लिए लहरें उठती हैं और वे अलग-अलग आकृति, आकार, तीव्रता आदि में नजर आती हैं।

हमारी इंद्रियां केवल इन्हें ही देख तथा समझ सकती हैं। अंत में लहरें वापस समुद्र में विलीन हो जाती हैं जहाँ से वे उठी थीं।

इसी तरह, एक बीज में वृक्ष बनने की क्षमता होती है। बीज में वृक्ष अपने अदृश्य रूप में विद्यमान है। यह तब प्रकट होता है जब एक पेड़ के रूप में विकसित होने लहता है। कई बीज पैदा करने के बाद यह अंततः मर जाता है।

दिखाई देने वाली वस्तुओं को इंद्रियां अपनी सीमित क्षमताओं के साथ समझ सकती हैं।

वैज्ञानिक उपकरण भी हमारी इंद्रियों की क्षमताओं को बढ़ाने के लिए हैं। माइक्रोस्कोप/ टेलीस्कोप आंखों की क्षमता को बढ़ाने हैं। एक्स-रे मशीन आंखों को प्रकाश की विभिन्न आवृत्तियों में चीजों को देखने में सक्षम बनाती है। कृष्ण कहते हैं यह (अव्यक्त) अकल्पनीय है; जिसका अर्थ है कि वैज्ञानिक उपकरणों की सहायता से भी हमारी इंद्रियां हमें इसे समझने में मदद नहीं करेंगी।

मन अदृश्य की कल्पना करने में असमर्थ है, क्योंकि मन भी इंद्रियों का एक सन्युक रूप है।

हम सभी की तरह अर्जुन भी मानव शरीर के साथ अपनी पहचान समझता है, क्योंकि उसके पास इससे आगे का कोई अहसास या अनुभव नहीं है। कृष्ण अर्जुन को ’आत्मा’ के बारे में बताकर उसकी सोच में एक आदर्श बदलाव लाने की कोशिश करते हैं। अर्जुन जैसे विद्वान को भी स्वयं भगवान को यह बात समझने पड़ी और हम भी इस नासमझी के अपवाद नहीं हैं।


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