श्रीकृष्ण स्व–धर्म (स्वयं की प्रकृति) (2.31-2.37) के बारे में बताते हैं और अर्जुन को सलाह देते हैं कि क्षत्रिय के रूप में उन्हें लड़ने में संकोच नहीं करना चाहिए (2.31) क्योंकि यह उनका स्व–धर्म है।

श्रीकृष्ण गीता की शुरुआत 'उस' से करते हैं जो शाश्वत, अव्यक्त और सभी में व्याप्त है। आसानी से समझने के लिए इसे ’आत्मा’ कहा जाता है। फिर वह स्व–धर्म के बारे में बात करते हैं, जो 'उस' से एक कदम पहले है और बाद में वह कर्म पर आते है।

अंतरात्मा की अनुभूति की यात्रा को 3 चरणों में विभाजित किया जा सकता है। पहला चरण है हमारी वर्तमान स्थिति, दूसरा है स्व–धर्म का बोध और अंत में, अंतरात्मा तक पहुंचना।

वास्तव में, हमारी वर्तमान स्थिति हमारे स्वधर्म, अनुभवों, ज्ञान, स्मृतियों और हमारे डगमगाते मन द्वारा एकत्रित धारणाओं का एक संयोजन है। जब हम अपने को अपने मानसिक बोझ से मुक्त करते हैं तो स्व–धर्म धीरे-धीरे खुल जाता है।

क्षत्रिय 'क्षत' और 'त्रय' का संयोजन है, 'क्षत' का अर्थ है 'चोट' और 'त्रय' का अर्थ है 'सुरक्षा देना'। क्षत्रिय वह है जो चोट से सुरक्षा देता है।

इसका सबसे अच्छा उदाहरण एक माँ का है जो गर्भ में बच्चे की रक्षा करती है और बच्चों की तब तक रक्षा करती है जब तक कि वे खुद को संभालने के लायक नही हो जाते। वह पहली क्षत्रिय हैं जिनसे हम अपने जीवन में मिलते हैं। वह अप्रशिक्षित हो सकती है और उसे बच्चे की देखभाल का अनुभव न हो लेकिन यह गुण स्वाभाविक रूप से उसे आता है। यह प्रकृति स्वधर्म की झलक है।

एक बार एक गुलाब का फूल एक बहुत शानदार कमल के फूल पर मोहित हो गया और कमल बनने की इच्छा उसके मन में पैदा हो गई लेकिन ऐसा कोई उपाय नहीं है गुलाब का फूल कमल बन जाए। गुलाब अपनी क्षमता से अलग होना चाहता था।

इसी तरह हम भी, जो है उससे अलग हो ने की कोशिश करते है। इसके परिणामस्वरूप हमे इस तरह की निराशा का सामना करना पड़ता है जैसा अर्जुन को करना पड़ा।

गुलाब अपना रंग, आकृति और आकार बदल सकता है, लेकिन फिर भी वह गुलाब ही रहेगा जो उसका स्व–धर्म है।


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