सत् और असत् पर श्री कृष्ण आगे 'उस' पर चिंतन करने के लिए कहते हैं जो अविनाशी है और सभी में व्याप्त है (2.17)। सृष्टि के बारे में लोकप्रिय और आसान समझ यह है कि यह रचनाकार का काम है लेकिन श्री कृष्ण 'रचनात्मकता' की ओर इशारा करते हैं, जो एक निरंतर विकासोन्मुख शक्ति है। उदाहरण के लिए यह बीज से अंकुरण का कारण बनती है। अंकुर और बीज (दोनों रचनाएं) नष्ट हो सकते हैं, लेकिन 'रचनात्मकता' नहीं, जो अथक रूप से काम करती है और चारों ओर व्याप्त है। जबकि सृष्टि समय से बंधी है, 'रचनात्मकता' समय से परे है। सृष्टि जन्म लेती है और मृत्यु के बाद समाप्त

हो जाती है, जबकि 'रचनात्मकता' अविनाशी है।

'रचनात्मकता' वास्तविक कर्ता है क्योंकि यह सृजन को जन्म देती है। यह अनुभूति और भावनाओं को बनातीहै। यह हमारे शरीर और मन जैसे भौतिक रूपों का निर्माण करती है। ज्ञान और स्मृति हमेशा अतीत की होती हैं और सृजन (कर्मफल) भविष्य में होता है। 'रचनात्मकता हमेशा वर्तमान में होती है।

'रचनात्मकता' ज्ञान और बुद्धि का उपयोग करने की क्षमता है जो इंद्रियों से स्वतंत्र प्रतिक्रिया करती है। हमारी इंद्रियां केवल सृजन को महसूस करने में सक्षम हैं और 'रचनात्मकता' के अहसास के लिए उनसे ऊंचा उठना जरूरी है।

खुशी का सबसे अच्छा क्षण वह होता है जब हम 'रचनात्मकता' के साथ जुड़ जाते हैं, चाहे वह हमारे पेशे में हो या हमारे निजी जीवन में एक कर्मयोगी के लिए, एक कौशल की महारत से यह आसानी से प्राप्त किया जाता है।


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