श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा , "कोई समय, भूत, वर्तमान या भविष्य ऐसा नहीं है, जब आप, मैं और युद्ध के मैदान में मौजूद ये शासक नहीं थे, हैं या रहेंगे (2.12)।"

वह आगे कहते हैं," शाश्वत 'जीव', जो अविनाशी है, के 'भौतिक पक्ष' का नाश होना निश्चित है और इसलिए आगे की लड़ाई लड़नी चाहिए।"

यह शाश्वत 'जीव' को कई नामों से जाना जाता है जैसे ' आत्मा ' या 'चैतन्य'। कृष्ण उसी को देही कहते हैं।

कृष्ण सृष्टि के सार से शुरू करते हैं और एक जीव की बात करते हैं, जो अविनाशी है, अथाह है, सभी में व्याप्त है और शाश्वत है।

दूसरा, उसी शाश्वत अस्तित्व का एक भौतिक पक्ष है जो हमेशा नष्ट होता है। जब कृष्ण शासकों के बारे में उल्लेख करते हैं तो वे उनमें उस 'जीव' की बात कर रहे होते हैं, जो अविनाशी और शाश्वत है।

मूलतः, हम दो भागों से बने हैं; शरीर और मन, जो हमेशा के लिए नष्ट हो जाएगा। वे सुख और दुख के ध्रुवों के अधीन हैं; जैसे अर्जुन उस दर्द से गुजर रहा है। दूसरा भाग देही है जो शाश्वत है। कृष्ण का जोर इसे महसूस करने तथा शरीर और मन से पहचानना बंद करने एवं देही के साथ पहचान शुरू करने पर है।

ज्ञानोदय तब होता है जब पहचान अपने आप छूट जाती है, जो एक अनुभव है और इसे शब्दों में नहीं समझाया जा सकता । गीता का वह भाग जहाँ कृष्ण अर्जुन से युद्ध करने के लिए कहते हैं, समझने में सबसे कठिन भाग है।

कुछ लोग कहते हैं कि कुरुक्षेत्र युद्ध कभी हुआ ही नहीं था और यह हमारे रोजमर्रा के संघर्षों का एक प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व है।

यह समझना जरूरी है कि अर्जुन के युद्ध से पलायन करने पर भी युद्ध जारी रहता। कृष्ण जागृति और अनुभूति के हथियारों का उपयोग करके जीवन में संघर्षों का सामना करने की वकालत करते हैं।

कृष्ण जानते हैं कि अहंकार से भरे हुए अर्जुन निराशा के स्थायी दास होंगे, भले ही वह युद्ध से हट जायें इसलिए, कृष्ण उसे सत्य का एहसास करने और युद्ध लड़ने के लिए कहते हैं।


English - Read

 

< Previous Chapter | Next Chapter >