कृष्ण कहते हैं कि सत् (वास्तविकता/स्थायित्व) कभी समाप्त नहीं होता और असत् (असत्य/अस्थायी) का कोई अस्तित्व नहीं है और ज्ञानी वह है जो दोनों के बीच अंतर कर सके (2.16)।

सत् और असत् की पेचीदगियों को समझने के लिए कई संस्कृतियों में रस्सी और सांप की कहानी को अक्सर उद्त किया जाता है। एक आदमी शाम को घर लौटा तो उसे प्रवेश द्वार पर एक सांप कुंडली मारे नज़र आया। लेकिन वास्तव में यह बच्चों द्वारा छोड़ी गई रस्सी थी, जो बहुत कम रोशनी में सांप की तरह दिखती थी।

यहां रस्सी सत् और सांप असत् का प्रतीक है। जब तक उसे सत् यानि रस्सी का बोध नहीं हो जाता, तब तक वह असत् यानी कल्पित सांप को पकड़ने के लिए कई रणनीतियां अपना सकता है। वह उस पर डंडे से हमला कर के ल‌ड़ सकता था,भाग सकता था या उसकी वास्तविकता परखने के लिए मशाल जलाने की कोशिश कर सकता था।

जब हमारी धारणा असत् की होती है तो सर्वोत्तम रणनीतियाँ और कौशल व्यर्थ हो जाते हैं।

असत् का अस्तित्व सत् से होता है, जैसे रस्सी के बिना सर्प का अस्तित्व नहीं है। चूँकि असत् का अस्तित्व सत् के कारण है, यह हमें किसी बुरे सपने की तरह प्रभावित कर सकता है जो हमारे शरीर को नींद में पसीना से तर- बतर कर सकता है।

असत् की पहचान के लिए श्री कृष्ण द्वारा दिया गया परख करने का तरीका यह सिद्धांत है कि - 'जो अतीत में मौजूद नहीं था और भविष्य में नहीं होगा'। यदि हम कामुक आनंद का उदाहरण लेते हैं, तो यह पहले भी नहीं था और कुछ समय बाद नहीं होगा।

दर्द और अन्य सभी मामलों में भी ऐसा ही है । इस सम्बन्ध में संकेत यह है कि असत् समय में मौजूद है जबकि सत् शाश्वत है।

सत् आंतरिक आत्म है जो शाश्वत है और अहंकार असत् है जो आंतरिक आत्म के समर्थन से खुद को बनाए रखता है। जिस दिन हम अपने आंतरिक स्व (रस्सी) की खोज कर लेते हैं, अहंकार (साँप) अपने आप गायब हो जाता है।


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