गीता में, भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि आप स्वयं अपने मित्र हैं और स्वयं अपने शत्रु हैं।
सुराही में फंसे बंदर की कहानी इसे अच्छी तरह से दर्शाती है। कुछ मेवों को सुराही में रखा जाता है जिसमें बंदर का हाथ बमुश्किल फिट बैठता है। बंदर सुराही के मुंह में हाथ डालता है और मेवों से मुट्ठी भर लेता है।
मुट्ठी भर जाने से हाथ का आकार बढ़ जाता है और वह सुराही से बाहर नहीं आ सकता। मेवों से भरे हाथ को सुराही से बाहर निकालने के लिए बंदर हर तरह की कोशिश करता है।
वह सोचता रहता है कि उसके लिए किसी ने जाल बिछाया है और उसे कभी पता नही चलता कि अपने विरुद्ध यह जाल हो स्वयं उसने लगाया है।
बाहर से देखने में यह काफी सरल लगता है कि मुट्ठी को ढीला करने से एक-दो मेवे गिर सकते हैं और उसका हाथ बाहर आ जा सकता। लेकिन जब हम फंस जाते तो इस सरल तथ्य को महसूस करना ही हमारे लिए एक चुनौती होती है।
बंद मुट्ठी हमारी दुश्मन है और खुला हाथ हमारा दोस्त है और यह हमारी पसंद है कि हम खुद को दोस्त या दुश्मन बनाकर खोलें या बंद करें।
जीवन में, हम ऐसे ही कई जालों का सामना करते हैं। वे और कुछ नही बल्कि ’मैं’ और ’मेरा’ है; अहंकार हमारा हाथ बांधता है। गीता बार-बार हमें कई तरह से कहती है, अहंकार को छोड़ दो ताकि हम इन जालों से मुक्त हो सकें, इस प्रकार परम स्वतंत्रता की ओर जा सकें।
इन जालों के बारे में अहसास तब आसान होता है जब हम बहुत अधिक शोर वाली तेज गति वाली दुनिया के बजाय धीमे हो जाते हैं।
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