Gita Acharan |Hindi

श्रीकृष्ण ने दो स्थानों (3.9 से 3.15 और 4.23 से 4.32) पर यज्ञ रूपी नि:स्वार्थ कर्म की बात की।

 

 वह सावधान करते हैं कि प्रेरित कार्य हमें कर्मबंधन में बांधते हैं और अनासक्ति, जो आसक्ति और विरक्ति के पार है, के साथ करने की सलाह देते हैं (3.9)। वह और भी बताते हैं कि यज्ञ की नि:स्वार्थ कर्म में सर्वोच्च शक्ति  निहित है (3.15) और शुरुआत में, इस शक्ति का उपयोग करके सृष्टा ने सृष्टि की रचना की (3.10)। उन्होंने यज्ञ  के कई उदाहरण दिए और निष्कर्ष निकाला कि वे सभी नि:स्वार्थ कर्मों के अलग अलग रूप हैं (4.23 से 4.32) और यह अनुभूति हमें मुक्त कर देगी (4.32)। इसे प्रभु का आश्वासन समझकर सिरोधार्य करना चाहिए।

 

इसके अलावा, पाप के बारे में, श्रीकृष्ण ने संकेत दिया (2.38 और 4.21) कि सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जय-पराजय के द्वंद्वों के बीच असंतुलन से उत्पन्न होने वाली क्रिया ही पाप है। इसके परिणामस्वरूप अपराध बोध, खेद, द्वेष और ईष्र्या के रूप में कर्मबंधन सामने आता है। 

 

उन्होंने आगे कहा, ‘‘जिसका अंत:करण और इन्द्रियों के सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पापों को प्राप्त नहीं होता’’ (4.21)। 

 

उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि मुमुक्षुओं ने आसक्ति को बलिदान करके अपने पापों को नष्ट कर दिया है (4.30)। यह यज्ञ में पापों के विनाश के बारे में भगवान का आश्वासन है।

 

श्रीकृष्ण ने पहले घोषित किया कि कर्म पर हमारा अधिकार है, लेकिन कर्मफल पर नहीं (2.47)। यहां उन्होंने एक रहस्य का खुलासा किया कि यज्ञ के निस्वार्थ कर्म का अवशेष ब्रह्म का अमृत है (4.31)।  इसका संकेत यह है कि हम जो कुछ भी प्राप्त करते हैं, वह हमारे द्वारा सचेत या अनजाने में किए गए निस्वार्थ कार्यों का परिणाम है। 

 

एक और निष्कर्ष यह है कि अगर हम संतोष को मानदंड के रूप में लेते हैं, तो संतुष्ट व्यक्ति और संतुष्ट हो जाता है और दु:खी व्यक्ति और दु:खी हो जाता है। यानी संतोष और संतोष लाता है और दु:ख और अधिक दु:ख। 

 

यह यज्ञ से मिलने वाले संतोष के अमृत के बारे में भगवान की ओर से एक आश्वासन है।


प्रेरणा ही किसी कर्म को पाप बनाती है और वही कर्म जब यज्ञ की तरह किया जाता है तो वह पुण्य बन जाता है जो मुक्ति और संतोष के अमृत के अलावा और कुछ नहीं है।


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