श्लोक 2.38 गीता के संपूर्ण सार को दर्शाता है। इसमें अर्जुन से श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि वह सुख और दुख, लाभ और हानि, और जय और पराजय समान समझकर युद्ध करे तो उसे कोई पाप नहीं लगेगा। समझने वाली बात है कि यह हर प्रकार के कर्म पर लागू होता है।

यह श्लोक बस इतना कहता है कि हमारे सभी कर्म प्रेरित हैं और यही प्रेरणा कर्म को अशुद्ध या पापी बनाती है। हम शायद ही कोई कर्म जानते हैं या करते हैं जो सुख, लाभ या जीत पाने के लिए या दर्द, हानि या हार से बचने के लिए न किया गया हो।

सांख्य और कर्मयोग की दृष्टि से किसी भी कर्म को 3 भागों में बांटा जा सकता है। कर्ता, चेष्टा और कर्मफल। श्रीकृष्ण ने कर्मफल को सुख/दुख, लाभ/हानि और जय/पराजय में विभाजित किया।

श्री कृष्ण इस श्लोक में समत्व प्राप्त करने के लिए इन तीनों को अलग करने का संकेत दे रहे हैं। एक तरीका यह है कि कर्तापन ,(खुद को कर्ता समझना) को छोड़ कर साक्षी बन जाएं। इस बात का अहसास होना महत्वपूर्ण है कि जीवन नामक भव्य नाटक में हम एक नगण्य भूमिका निभाते हैं।

दूसरा तरीका यह महसूस करना है कि कर्मफल पर हमारा कोई अधिकार नहीं है क्योंकि यह हमारे प्रयासों के अलावा कई कारकों का एक संयोजन है। कर्तापन या कर्मफल छोडऩे के मार्ग आपस में जुड़े हुए हैं और एक में प्रगति स्वत: ही दूसरे में प्रगति लाएगी।

चेष्टा की बात की जाए तो यह हममें से किसी के भी धरती पर आने से बहुत पहले मौजूद था। न तो इसपर स्वामित्व पाया जा सकता है और न ही इसके परिणामों को नियंत्रित किया जा सकता है।

इस श्लोक को भक्ति योग की दृष्टि से भी देखा जा सकता है जहाँ भाव ही सब कुछ है। श्रीकृष्ण कर्म से अधिक भाव को प्राथमिकता देते हैं। यह आंतरिक समर्पण स्वत: ही समत्व लाता है।

कोई भी अपनी रुचियों के आधार पर अपना रास्ता खुद चुन सकता है। दृष्टिकोण अधवा सोच कुछ भी हो, इस श्लोक का ध्यान करने मात्र से व्यक्ति अहंकार से मुक्त अन्तरात्मा को प्राप्त कर सकता है।


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