श्रीकृष्ण ने देखा कि अर्जुन अहंकार की भावना से अभिभूत है और यही उसके विषाद का कारण है। श्रीकृष्ण अर्जुन को सलाह देते हैं कि वह अहंकार को तोडऩे और स्वयं तक पहुँचने के लिए सुसंगत बुद्धि का उपयोग करें।

गर्व अहंकार का एक छोटा–सा हिस्सा है। अहंकार को अभिमान कहा जाता है। हमे ईष्र्या होती है
जब हम दूसरों को सुखी देखते हैं और सहानुभूति होती है जब हम दूसरों को दुखी देखते हैं।

अहंकार हम पर हावी होता है जब हम भौतिक संपत्ति एकत्र कर रहे होते हैं और जब हम उन्हें छोड़ते हैं तब भी वह मौजूद होता है।

यह संसार में कर्म करने के लिए और संन्यास लेने के लिए भी प्रेरित करता है। यह बनाने के पीछे तो है, साथ ही बिगाडऩे के पीछे भी है। यह ज्ञान में भी है और अज्ञान में भी।

प्रशंसा अहंकार को बढ़ावा देती है और आलोचना से पीड़ित होती है। ये दोनों दशाएँ हमें दूसरों द्वारा हेरफेर के लिए उत्तरदायी बनाती हैं। संक्षेप में, अहंकार किसी न किसी अर्थ में हर भावना के पीछे होता है जो हमारे बाहरी व्यवहार को प्रभावित करही है। अहंकार हमें सफलता और समृद्धि की ओर ले जाता प्रतीत हो सकता है, लेकिन यह अस्थायी रूप से नशे में धुत्त होने जैसा है।

‘मैं’ और ‘मेरा’ अहंकार के पैर हैं और दैनिक बातचीत और विचारों में इन शब्दों के प्रयोग से बचने से व्यक्ति काफी हद तक अहंकार को कमजोर कर सकता है।

अहंकार का जन्म तब होता है जब हम एक या दूसरे ध्रुव के साथ पहचान करना चुनते हैं और इसीलिए श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सलाह दी कि वह विकल्पहीन रहे जिसमें अहंकार के लिए कोई जगह नहीं बचती है।

बच्चों की तरह भूख लगने पर भोजन करे; ठंड होने पर गर्म कपड़े पहने; जरूरत पडऩे पर संघर्ष करे – बिना किसी भावना के साथ जुड़े हुए।


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