श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तुम सफलता तथा असफलता जैसी ध्रुवियताओं को त्याग कर कार्य करोगे तो वह समत्व ही योग कहलाता है। दूसरे शब्दों में, हम जो कुछ भी करते हैं, वह सामंजस्यपूर्ण होगा, जब हम ध्रुवीयताओं के साथ पहचान करना बंद कर देंगे।

हमारे दैनिक जीवन में हम कई निर्णय लेते हैं और विकल्पों का चयन करते है। निर्णय लेने वाला दिमाग उपलब्ध विकल्पों में से चुनता रहता है, जिन्हें श्रीकृष्ण उन्हें (2.38) सुख–दुख, लाभ–हानि, जीत–हार और सफलता–असफलता में वर्गीकृत करते हैं।

समत्व का मतलब है इन ध्रुवों को समान मानना। जब यह अहसास गहरा होता है, तो मन शक्तिहीन हो जाता है और चुनाव रहित जागरूकता प्राप्त कर लेता है।

जब हम नींद में या नशे में होते हैं तो आलोचना करने की क्षमता सहज ही खो देते हैं। लेकिन आलोचना करने के काबिल होने के बावजूद आलोचना नहीं करना ही समत्व है। यह केवल एक दृष्टा बनकर वर्तमान क्षण में जीवित होना है।

कर्म करते समय समता प्राप्त करने का व्यावहारिक मार्ग यह है कि कर्तापन को छोडक़र साक्षी बनना।

यह पूरी तीव्रता, प्रतिबद्धता, समर्पण, दक्षता और जुनून के साथ किसी नाटक में भूमिका निभाने जैसा है; मूल रूप से दी गई परिस्थितियों में अपना सर्वश्रेष्ठ देना है।

इसी तरह जीवन के भव्य मंच पर हमें जो भूमिकाएं दी जाती हैं, उन्हें हमें पूरी लगन के साथ निभाना चाहिए। यह एक पुत्र/पुत्री, पत्नी/पति, माता-पिता, मित्र, कर्मचारी, नियोक्ता, सहकर्मी, पर्यवेक्षक आदि की भूमिका हो सकती है।

एक दिन में हम कई अलग-अलग भूमिकाओं को निभाते हैं और प्रत्येक भूमिका को निभाते हुए हमें अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना चाहिए, लेकिन यह अच्छी तरह से जानते हुए कि हमारी भूमिका सिर्फ नाटक का एक हिस्सा है।

जीवन में हमें जो भूमिकाएं मिली हैं, उन सभी भूमिकाओं में कुछ दिनों के लिए इसका अभ्यास करना शुरू कर सकते हैं और अपने जीवन में आने वाले सामंजस्य को स्वयं देख सकते हैं।


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