समत्व (समभाव / समता) एक सामान्य सूत्र है। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कई बार समत्व-भाव, समत्व-दृष्टि और समत्व-बुद्धि की विशेषताओं पर प्रकाश डाला है । समत्व को समझना आसान है लेकिन आत्मसत् करना मुश्किल है। हमारे भीतर समत्व की मात्रा, आध्यात्मिक यात्रा में हमारी प्रगति का सूचक है।

अधिकांश समाजों ने समत्व को सभी नागरिकों के लिए कानून के समक्ष समानता के रूप में स्वीकार किया है। कृष्ण समत्व के कई उदाहरण देते हैं। श्री कृष्ण सुख और दुख; लाभ और हानि आदि को समान मानते हैं।

मनुष्यों के साथ कठिनाई यह है कि हम संस्कृति, धर्म, जाति, राष्ट्रीयता, नस्ल आदि जैसे विभिन्न कृत्रिम विभाजनों के आधार पर जीते हैं।

इन विभाजनों को दूर करने और दो अलग-अलग लोगों के साथ समान व्यवहार करने की क्षमता ही समत्व की ओर पहला कदम है। यह आम व्यवहार की तुलना में बहुत गहरा है।

समत्व की दिशा मे प्रगति का अगला स्तर हमारे करीब अपने दो लोगों को समत्व के साथ देखने की क्षमता है। उदाहरण के तौर पर, अपने बच्चों के दोस्तों की सफलता के लिए खुश होना, खासकर जब हमारे अपने बच्चों ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया हो ; माँ और सास से लेकर बेटी और बहू तक के साथ समान व्यवहार करना आदि।

समत्व का उच्चतम स्तर दूसरों को अपने समान मानने तथा हर हाल में समत्व को बनाए रखने की क्षमता है । यह भाव तब आता है जब हम दूसरों की कमजोरियों को खुद में और दूसरों में अपनी ताकत देख सकते हैं।

श्री कृष्ण परामर्श देते हैं कि हम खुद को दूसरों में और दूसरों को अपने में देखें; और अंत में, श्री कृष्ण को हर किसी में और हर जगह देखने के लिए कहते हैं।

हमारा मन समत्व के इस उच्चतम स्तर को प्राप्त करने में बाधा है, जो विभाजित करने के लिए प्रशिक्षित है। हमें इसे हावी होने की अनुमति देने के बजाय, इसे अपने अधीन बनाने में सक्षम होना चाहिए।


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